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6 May 2020 10:22 AM

ओनिका जी,निशंन्देह शांतनु ने अपने पुत्र के साथ न्याय नहीं किया था, किन्तु बाद की परिस्थितियों में देवव्रत जी को भी अपने किए गए प्रकरण पर विचार करने को तैयार रहना चाहिए था,जिसे उन्होंने नजर अंदाज कर दिया, और ऐसे विकल्प को चुना जो सभ्य समाज के अनुरूप नहीं था। इससे तो किसी बच्चे को गोद ले लिया जाता और उसे राज पाट सौंपना चाहिए था। लेकिन यह हो गया है, और अब वर्तमान के लिए एक सबक सिखाने का प्रसंग है। आपके उद्गार के लिए आपका आभार व्यक्त करता हूं। धन्यवाद

5 May 2020 10:16 PM

आपके उद्गार पाकर संतोष प्राप्त होता है। आभार व्यक्त करता हूं।

सुंदर विस्तृत व्याख्या पूर्ण काव्य कथा प्रस्तुति।

धन्यवाद !

अत्यंत मार्मिक व सत्य कथन । महात्मा व वीर शिरोमणि भीष्म ( देवव्रत ) के साथ हो रहे अन्याय को देखकर बहुत दुख होता है। उनके जीवन का प्रथम अन्याय स्वयं उनके पिता ने ही किया जिसकी वजह से उनको यह भीष्म प्रतिज्ञा लेनी पड़ी । हाँ मगर उसके बाद उनके घोर अन्याय ने उन्हें चैन से मरने भी न दिया । मरते दम तक आत्म ग्लानि की आग में जलते रहे ।मगर इसका क्या फायदा ! तीर तो कमान से निकल गया ,वो कहाँ से वापिस आ सकता था। जो एक बार उस महान आत्मा के जीवन के साथ घटित होना था ,वो तो हो गया। शांतनु को पहले ही सोच विचार का कदम उठाना चाहिए था। अपनी उम्र का लिहाज नहीं किया ,और न ही एक जवान बेटे के बाप होने की थोड़ी सी शर्म आई । और उनके इस चारित्रिक पाटन का खामियाजा स्वयं के साथ भीष्म और बाद में सम्पूर्ण आर्य व्रत को भुगतना पड़ा ।

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