लगता है क्यों बिय़ाबान मौजों की रव़ानी सा ये शहर। शायद जज्ब़ातों का कोई क़हर गिरा होगा।
क्यों अजनबी से लगते हैं ये जाने पहचाने से चेहरे।
मैं खुद अपने कदमों की आहट से चौंक जाता हूँ।
मुझे खुद अपने साये से डर लगने लगा है।
क्यों हव़स का भूत सवार है सिर पर जो इंसाँँ को व़हशी बना रहा है।
कहां गया वो जमीर ए आदमिय़त और खिलाफ ए ज़लाल़त क़ुर्बानी का जज़्बा।
अब तो इंतजार है उस चिंगारी का जो फूंक दे जान इन जिंदा लाशों में ।
और थूक दे इस ज़हर और फैलने से पहले।
लगता है क्यों बिय़ाबान मौजों की रव़ानी सा ये शहर। शायद जज्ब़ातों का कोई क़हर गिरा होगा।
क्यों अजनबी से लगते हैं ये जाने पहचाने से चेहरे।
मैं खुद अपने कदमों की आहट से चौंक जाता हूँ।
मुझे खुद अपने साये से डर लगने लगा है।
क्यों हव़स का भूत सवार है सिर पर जो इंसाँँ को व़हशी बना रहा है।
कहां गया वो जमीर ए आदमिय़त और खिलाफ ए ज़लाल़त क़ुर्बानी का जज़्बा।
अब तो इंतजार है उस चिंगारी का जो फूंक दे जान इन जिंदा लाशों में ।
और थूक दे इस ज़हर और फैलने से पहले।
कमाल लिखा है आपने