मैं गुमसुम सी गौरैया!
बहुत सुन्दर भाव पूर्ण एवं मार्मिकता से भरपूर इस रचना ने हमारे कंक्रीट के जंगल तो पैदा कर दिए, किंतु पंछी को छाया नहीं फल हो गये बहुत दूर! अब हम घरों में घोंसले भी नहीं बनने देते, और दाना पानी तो सिर्फ छत पर ही संभव है जो कि कई मंजिला भवनों पर किसी उपयोग की रही नहीं! इस लिए रचनाकार ने यथार्थ को परिलक्षित किया है, बहुत ढेर सारी बधाइयां एवं शुभकामनाएं।
मैं गुमसुम सी गौरैया!
बहुत सुन्दर भाव पूर्ण एवं मार्मिकता से भरपूर इस रचना ने हमारे कंक्रीट के जंगल तो पैदा कर दिए, किंतु पंछी को छाया नहीं फल हो गये बहुत दूर! अब हम घरों में घोंसले भी नहीं बनने देते, और दाना पानी तो सिर्फ छत पर ही संभव है जो कि कई मंजिला भवनों पर किसी उपयोग की रही नहीं! इस लिए रचनाकार ने यथार्थ को परिलक्षित किया है, बहुत ढेर सारी बधाइयां एवं शुभकामनाएं।
हार्दिक?? धन्यवाद