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Comments (4)

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4 Mar 2020 03:35 PM

बहुत सुंदर
अपना बचपन याद आ गया और उसमें कुछ खो सा गया।
विशेष रूप से

“दुनियादारी की समझ और न होशियारी थी
हंस कर मिलने वाले सब अपने ही लगते थे”

कितना निश्चल भाव है ।आज तो हर नये व्यक्ति के प्रति संशय ही रह्ता है।
इस कविता की प्रशंसा हेतु मुझे शब्द ही नहीं मिल रहे है।

Simply Awesome

4 Mar 2020 03:49 PM

Thankyou very much

22 Sep 2019 11:12 PM

Wow घर के छोटे छोटे कमरे महल जैसे लगते थे
माँ के सादे खाने हमें छप्पन भोग लगते थे

4 Mar 2020 03:48 PM

Thankyou ji

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