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दोस्त बन कर भी नहीं साथ निभाने वाला। वही अंदाज़ है ज़ालिम का ज़माने वाला। क्या कहें कितने म़रासिम थे हमारे उससे । है वही श़ख्स जो मुंह फेर के जाने वाला तुम तक़ल्लुफ़ को भी अख़लाख़ समझते हो फ़राज़ दोस्त होता नहीं हर हाथ मिलाने वाला ।
अहम़द फ़राज़ का यह श़ेर पेश़े खिदम़त है।
श़ुक्रिया !

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हार्दिक आभार आदरणीय ??

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