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मरीज़े मोहब्ब़त उन्ही का फ़साना सुनाता रहा दम़ निकलते निकलते ।
तभी ज़िक्र -ए- शामे अलम़ जब के आया , चऱागे स़हर बुझ गया जलते जलते।
इरादा था करके मोहब्ब़त का लेकिन , फरेबे तब़स्सुम मे फिर आ गए हम।
अभी खा के ठोकर संभलने ना पाए तो फिर खायी ठोकर संभलते संभलते।

श़ुक्रिया !

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