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भावना का महत्व मनुष्य के जीवन में आवश्यक है।
मनुष्य में भावनाएं उसमें निहित संस्कारों से निर्मित होती हैं। भाव विहीन मानव पशु तुल्य हो जाता है।
भावनाओं और विवेक का अपना अपना स्थान एवं महत्त्व है। इन दोनों का समावेश मनुष्य में होना चाहिए। भावातिरेक में लिए गए निर्णय जिसमें विवेक का अभाव होता है हमेशा गलत सिद्ध होते हैं।
अतः भावनाओं की पृष्ठभूमि में विवेकशील निर्णय ही सर्वदा तर्कसंगत मान्य एवं सही सिद्ध होते हैं।
अतः भावनाओं एवं विवेक का सामंजस्य होना समस्याओं के निराकरण में एक अहम भूमिका निभाता है। कोरी भावना से समस्याओं का समाधान नहीं होता और भावना विहीन विवेकशील निर्णय भी अमान्य होकर समस्याओं का समाधान करने में असफल सिद्ध होता है।
हमारे देश की संस्कृति विश्व में सर्वश्रेष्ठ संस्कृति रही है जिसमें मानवीय मूल्यों का महत्व आदिकाल से चला आ रहा है। हम पर बाहरी शक्तियों से सतत वार होते रहे हैं और हमने वर्षों की दासता भी झेली है। परंतु हमारी भारतीय संस्कृति फिर भी अक्षुणः रही है।
जो हमारे देशवासियों की देश प्रेम की भावना एवं संस्कृति के प्रति आस्था का नतीजा है। हम भारतीय हैं इस पर हमको गर्व होना चाहिए।

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जी सर ,सत्य के लगभग करीब ।जोड़ना चाहेगे कि हम महान है यह स्वभिमान है पर सबसे महान है यह अतिसंयोक्ति है क्योंकि वर्तमान में हम बहुत से क्षेत्रों में पीछे है,उनका वास्तविक आकलन भावनाओं से अभिभूत होकर नही करना ,तर्कसंगत न होगा ।
इसलिए भावना प्रधान के साथ साथ हमे तर्क प्रधान भी बनाना पडेगा,यह प्रगतिशीलता के मार्ग पर उद्भूत करेगा।

केवल तर्कों की कसौटी पर समस्याओं का समाधान संभव नहीं है । जब तक वास्तविकता में उसमें मानवीय हितों को दृष्टिगत रखकर उसका हल ना ढूंढा जाए। समस्या का हल यदि तर्कों के आधार पर किया जाएगा तो वह व्यवहारिकता से परे वस्तुनिष्ठ होकर रह जाएगा। समस्या के समाधान में मानवीय हितों के समावेश से ही व्यवहारिक निष्पादन की सफलता सुनिश्चित की जा सकती है।

मैं उस मानसिकता का पक्षधर नही हूँ जो नित सवेरे हमें संस्कृति और विरासत के नाम पर सतृप्त करती रहे,प्रगति के नाम पर विश्व गुरु होने की अमूर्त चितंन में ओत प्रोत करती रहे ।अब इस आभासी दुनिया से बाहर निकल कर लौकिक जीवन में समस्या को पहचानने की जरूरत है ।
हम आज अविष्कार में सबसे पीछे क्यों है , क्या हमारे पास बौद्धिक क्षमता नही है? क्या हमारे पास संसाधनों की कमी है ?
इन सभी प्रश्नों के उत्तर ना है ,हमारे पास सब कुछ होते हुए भी हमे अपनी शक्तियों का ज्ञान ही नही है ।मसलन हम सिर्फ आत्म गौरव में जीते है ,प्रगति के नाम पर नक़ल करने में व्यस्त है ।
हमारे देश के पास एक भी पेटेन्ट नही है ,दवाई के लिए हम चाइना पर निर्भर है ,हथियार के लिए हम रूस को खोजते है , हम क्यों इन सब के लिये औरो पर निर्भर है? क्योंकि हमने खुद को आत्मगौरव की भावना में क़ैद कर लिया है और जिंदिगी को लाघव करने में लगे है ।

हमारी संस्कृति और विरासत का किसी भी आविष्कार के जनन और विकास में आड़े आने का प्रश्न नहीं है ।किसी भी खोज के लिए आधुनिक युग में वित्तीय प्रबंध की आवश्यकता होती है और इस हेतु शासन द्वारा बजट प्रावधान करना आवश्यक होता है। शासन बजट में प्रावधान प्राथमिकता के आधार पर विभिन्न क्षेत्रों में आबंटित करती है।
यहां तक कि अन्वेषण एवं विकास हेतु भी शासन बजट प्रावधान करती है। जिनमें में भी प्राथमिकता के आधार पर विभिन्न क्षेत्रों में अन्वेषण को वरीयता के क्रम में रखा गया है। किसी भी क्षेत्र में सतत् खोज के लिए एक बड़ी मात्रा में वित्त व्यवस्था आवश्यक है। अतः सरकार किसी एक क्षेत्र में खोज हेतु बड़ी मात्रा में वित्तीय आबंटन नहीं कर सकती।
जिन क्षेत्रों में अन्य देश अन्वेषण मे सक्रिय हैं , उन्हीं क्षेत्रों में खोज करने से पुनरावृत्ति की संभावना अधिक है। अतः केवल देश के शासन एवं वैज्ञानिक प्रतिभाओं को दोष देने से कुछ हासिल ना होगा।
हमें देश की वस्तुःस्थिति का आकलन करते हुए अपनी प्रज्ञा शक्ति से किसी निष्कर्ष पर पहुंचना होगा। केवल तर्कों के आधार पर निष्कर्ष पर पहुंचना न्यायोचित नहीं है।
जहां तक निजी क्षेत्रों का खोज में भागीदारी का प्रश्न है वह स्वेच्छिक है। जिसमें शासन का नियंत्रण नहीं है।

भावना में बुद्धि और तर्क का कोई स्थान नहीं है,जो उचित नही है ।
एक कहावत भी प्रचलित है कि ‘कर्मों की ध्वनि शब्दों से ऊँची होती है।’ भावना के वशीभूत होकर व्यक्ति प्रायः अपने कर्तव्यों से भटक जाता है जबकि कर्तव्य ही जीवन को अर्थ और महत्व प्रदान करता है। भावना से कर्तव्य श्रेष्ठ है।
डिजरायली ने कहा कि ‘कर्म के बिना सुख नहीं मिलता।’ भारतीय संस्कृति में भी कर्म को ही प्रधानता दी गई है और इसीलिए उन्हीं महापुरुषों को पूजा गया है, जिन्होंने भावना से ऊपर उठकर कर्तव्य को प्रधानता दी है। महर्षि वेदव्यास ने तो स्पष्ट कहा कि ‘यह धरती हमारे कर्मों की भूमि है।’ कर्तव्य मनुष्य के संबंधों और रिश्तों से ऊपर होता है।

आप का तात्पर्य यह है कि कर्तव्यों के निर्वाह में भावना का कोई महत्त्व नहीं है। भावना ही कर्तव्यों के निर्वाह का प्रेरणा स्रोत है। यदि हमारी सुरक्षा सैनिकों में देश प्रेम की भावना नहीं होगी तो वह अपने कर्तव्यों का निर्वाह कैसे करेंगे ? उनके लिए वह मात्र नौकरी करने जैसा हो जाएगा। एक सैनिक अपना भविष्य देश की सुरक्षा में इसलिए लगाता है कि उसमें देश प्रेम की भावना है । वह दुश्मन से लड़ कर अपने प्राणों की आहुति भी उसी भावना से देता है । इसी प्रकार एक पुत्र अपने मां-बाप की देखभाल में अपने कर्तव्य का निर्वाह इसलिए करता है कि उसमें मां-बाप के प्रति प्रेम एवं सम्मान है। यदि वह प्रेम व सम्मान नही होगा तो वह अपने कर्तव्य निर्वाह से विमुख हो सकता है या उसके लिए कर्तव्य निर्वाह केवल एक अनुबंध मात्र ही रहेगा या उसमें स्वार्थपरता का अंश होगा।
इसी प्रकार एक शिक्षक अपने विद्यार्थी के भविष्य को सुधारने एवं संवारने हेतु भाव से ज्ञान प्रदान नहीं करेगा तो उसके लिए शिक्षा देना केवल एक नौकरी की जिम्मेदारी निभाना मात्र रह जाएगा।
अतः भावनाविहीन कर्तव्य पालन एक अनुबंध मात्र है ।या एक व्यापारिक मजबूरी या बंधक मजदूरी है।

सिर्फ़ भावना को महत्व देना न्याय संगत नही ,इसमें कर्म का निवेश ज़रूरी है ।
कहते है शुभ कर्म स्वर्ग के दरवाजे का अदृश्य कब्जा है। निष्कर्ष यह कि पश्चिमी देशों में अधिकारों के प्रति अधिक जागरूकता दिखाई देती है, किंतु भारतीय संस्कृति में भाव पर ही अधिक बल दिया गया है। भारत अपने उज्ज्वल भविष्य के लिए प्रत्येक व्यक्ति द्वारा कर्तव्य पालन की प्रतीक्षा कर रहा है। यदि सभी अपने-अपने स्थानों पर नियत कर्म करते रहे तो यह धरती एक दिन जरूर स्वर्ग बन जाएगी।

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