माँ कविता नहीं, महाकाब्य है |
प्रकृति-पुरुष को समझने के लिए –
माँ शब्द ही प्रयाप्त है |
जो ब्रह्मा-विष्णु-रूद्र को झुलाए,
अष्टादश पुराण भी –
जिसकी व्याख्या न कर पाए,
उस पर यह अकिंचन कुछ कह पाए,
कैसे संभव है |
आपके साहित्य-प्रेम को मेरा प्रणाम |
दर्द में सहभागिता के लिए मेरा सलाम |
परिचय का मोहताज न बने रचनाएँ,
यश-कामना से दूर,
आपका साहित्य-सृजन –
यूँ ही चलता रहे अविराम |
इसी जज्बे के साथ लेखिनी चलती रहे,
संवेदनाओं को लिपिबद्ध करती रहे,
भाव हो निष्काम |
माँ कविता नहीं, महाकाब्य है |
प्रकृति-पुरुष को समझने के लिए –
माँ शब्द ही प्रयाप्त है |
जो ब्रह्मा-विष्णु-रूद्र को झुलाए,
अष्टादश पुराण भी –
जिसकी व्याख्या न कर पाए,
उस पर यह अकिंचन कुछ कह पाए,
कैसे संभव है |
आपके साहित्य-प्रेम को मेरा प्रणाम |
दर्द में सहभागिता के लिए मेरा सलाम |
परिचय का मोहताज न बने रचनाएँ,
यश-कामना से दूर,
आपका साहित्य-सृजन –
यूँ ही चलता रहे अविराम |
इसी जज्बे के साथ लेखिनी चलती रहे,
संवेदनाओं को लिपिबद्ध करती रहे,
भाव हो निष्काम |
मेरी शुभेच्छाएँ स्वीकार करें,
– हरिकिशन मूंधड़ा
कूचबिहार