पूछ रहा मन प्रश्न निरंतर कब तक इस सराय में डेरा
कोई देगा इसका उत्तर कब होना है नया सवेरा
चलते चलते थके बटोही सुबह दोपहर शाम देख ली
नहीं मिला है इसका उत्तर किसने जीवन चित्र उकेरा
मन की बस्ती जंगल जैसी किस्म किस्म के जीव पल रहे
अहंकार का नाग पला था उसे पकड़ ले गया सपेरा
सागर का कुछ पता नहीं है नावों से पतवार छुड़ा दे
मन भी मौसम सा चन्चल है कभी उजाला कभी अंधेरा
सारे यायावर बस्ती के चले जा रहे अपनी धुन में
नहीं हाथ को हाथ सूझता हुआ कोहरा गजब घनेरा
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डॉक्टर इंजीनियर
मनोज श्रीवास्तव
पूछ रहा मन प्रश्न निरंतर कब तक इस सराय में डेरा
कोई देगा इसका उत्तर कब होना है नया सवेरा
चलते चलते थके बटोही सुबह दोपहर शाम देख ली
नहीं मिला है इसका उत्तर किसने जीवन चित्र उकेरा
मन की बस्ती जंगल जैसी किस्म किस्म के जीव पल रहे
अहंकार का नाग पला था उसे पकड़ ले गया सपेरा
सागर का कुछ पता नहीं है नावों से पतवार छुड़ा दे
मन भी मौसम सा चन्चल है कभी उजाला कभी अंधेरा
सारे यायावर बस्ती के चले जा रहे अपनी धुन में
नहीं हाथ को हाथ सूझता हुआ कोहरा गजब घनेरा
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डॉक्टर इंजीनियर
मनोज श्रीवास्तव
कविता की कविताई गायब आभारी हम आई है पसंद
65 वर्ष हो गए काव्यात्रा के सच ही आता हमें पसंद
जो रचना मन को औरों के छूती है देती है निर्मल आनंद
अच्छे लोगों से जुड़ना ही देता है जीवन मकरंद
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डॉक्टर इंजीनियर
मनोज श्रीवास्तव