कोमल कुसुम प्रसून कुञ्ज वन विपिन अरण्य सभी काटे । इस सदा अतृप्त मनुज ने अपने उदर हेतु सुख ही छाँटे ।।१।।
नित तृषावन्त रहता हरता जल जन्तु जीवन जीव सभी । पदचर थलचर नभचर जलचर करता भक्षण करुणा ना कभी ।।२।।
कब तक – – – – – – – – – – – कब तक चुप रह सहती अवनि इतना दुःख दारुण दुसह प्रबल । चित्कार उठी वाराही धरती देन दण्ड लोचन भरि जल ।।३।।
नर ! है वो माता तेरी भी, तुझसे पर ये तो हो ना सका । मिलजुल कर रहता सबसे, ……..दुस्साहस पर तेरा ना रुका ।।४।।
अब देख मनुज तेरे घर-घर में ही एक कारावास खुला । तेरा पलड़ा हल्का उसका भारी उसके ही हाथ तुला ।।५।।
एक सूक्ष्म अदृश्य से जीव-अणु ने समस्त वसुधा बंदी करि । तुझसे, तेरे ही हाथों से, तेरी स्वसत्ता कथित हरी ।।६।।
अब भी सोचो और सोच समझ, यमग्रास ना बन, जीवन जीना । ‘शैल’जा धरा ये मातृतुल्य चाहें सब खेलें इस अंगना ।।७।।
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कोमल कुसुम प्रसून कुञ्ज वन विपिन अरण्य सभी काटे ।
इस सदा अतृप्त मनुज ने अपने उदर हेतु सुख ही छाँटे ।।१।।
नित तृषावन्त रहता हरता जल जन्तु जीवन जीव सभी ।
पदचर थलचर नभचर जलचर करता भक्षण करुणा ना कभी ।।२।।
कब तक – – – – – – – – – – – कब तक चुप रह सहती अवनि इतना दुःख दारुण दुसह प्रबल ।
चित्कार उठी वाराही धरती देन दण्ड लोचन भरि जल ।।३।।
नर ! है वो माता तेरी भी, तुझसे पर ये तो हो ना सका ।
मिलजुल कर रहता सबसे, ……..दुस्साहस पर तेरा ना रुका ।।४।।
अब देख मनुज तेरे घर-घर में ही एक कारावास खुला ।
तेरा पलड़ा हल्का उसका भारी उसके ही हाथ तुला ।।५।।
एक सूक्ष्म अदृश्य से जीव-अणु ने समस्त वसुधा बंदी करि ।
तुझसे, तेरे ही हाथों से, तेरी स्वसत्ता कथित हरी ।।६।।
अब भी सोचो और सोच समझ, यमग्रास ना बन, जीवन जीना ।
‘शैल’जा धरा ये मातृतुल्य चाहें सब खेलें इस अंगना ।।७।।