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भारतीय संस्कृति में पारिवारिक संस्था के मूल्यों एवं संस्कारों का महत्व आदिकाल से चला आ रहा है। यदि हम मान भी ले कि आधुनिक युग में उनका निरंतर ह्रास होकर वे अपनी प्रभावशीलता खो चुके हैं , फिर भी कहीं ना कहीं मूल में उनका कुछ न कुछ प्रभाव हमारे जीवन में मौजूद है। जिसके कारण हम पूर्णतः भारतीय संस्कृति से विमुख होकर पाश्चात्य संस्कृति में ढल नहीं सकते हैं।
इस कारण हमारी मानसिकता पूर्णतः पाश्चात्य सोच का अनुसरण नहीं कर पाई है।
यह हमारी विकृत सोच का परिणाम है कि हमने पाश्चात्य स्वच्छंदता को प्रगतिशीलता मानकर उसका अनुसरण हमारी युवा पीढ़ी द्वारा किया जा रहा है । विवाह से पहले युवा लड़के लड़कियों के संबंध पाश्चात्य संस्कृति में स्वीकृत हैं । परंतु भारतीय संस्कृति में लड़कियों का शीलभंग होने पर उन्हें हेय दृष्टि से देखा जाता है। इसी प्रकार विवाहेतर संबंध समाज में मान्य नहीं है।
अतः हमें भारतीय संस्कृति के परिपेक्ष में आकलन करने की आवश्यकता है । हम लोगों की सोच में आमूलचूल परिवर्तन नहीं ला सकते हैं ,अतः हमें अपना आचरण इस प्रकार रखना होगा जिससे हमारे आचार व्यवहार पर उंगली ना उठे ।
हम जितने भी आधुनिक होने का दावा कर ले , परंतु पाश्चात्य संस्कृति एवं सोच को हम आत्मसात नहीं कर सकते हैं।
धन्यवाद !

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