प्रशांत जी, यह सोलह आने सच है कि आज का युग सिर्फ सर्वार्थ सिद्धि में तल्लीन हो रहा है, किसी के योगदान की किसी को परवाह नहीं है, लेकिन अपने काम को सबसे अधिक कीमती जताने से हिचकिचाहट नहीं महसूस करते, इसीलिए आज ना तो किसान अन्नदाता रहा,ना जवान रक्षक, और ना डाक्टर भगवान! किन्तु वह लोग जो क्षण भर के लिए कोई सहायता कर लें,हम उसके अहसान मंद हो जाते हैं एवं उसके लिए बार बार उसका अहसास कराने लगते हैं, जबकि जो काम उसके द्वारा किया गया होता है वह उसकी जिम्मेदारी का अहम हिस्सा होता है,तब हमें नहीं लगता कि यह भी तो उसके काम का एक हिस्सा था जो उसने किया है, बस अपनी परेशानी से बचने के लिए हम उसे लोभ लालच में भी डाल देते रहे हैं, जिसका परिणाम यह है कि अब आम आदमी को अपने काम का मुल्य चुकाने के लिए प्रस्ताव किया जाता है कि काम होने का यह दाम है करना है तो बताओ नहीं तो फिर अपने ढंग से कराते रहो,हो जाएगा तो ठीक है नहीं तो फिर मुझसे मिल लेना, ।और तब तक दाम बढ़ चुके होते हैं, और जरुरत मंद ले दे के काम कराने का प्रयास करना चाहता है, व्यवस्था चरमरा गई है, और इसी में रहना सीख रहे हैं! अन्यथा यदि यही किसान शासन प्रशासन में बैठे हुक्मरान तक थैली भेंट कर लेता तो, तो वेतन आयोग की तरह उसके लाभ के लिए भी कोई तरीका ढूंढ लिया गया होता!
प्रशांत जी, यह सोलह आने सच है कि आज का युग सिर्फ सर्वार्थ सिद्धि में तल्लीन हो रहा है, किसी के योगदान की किसी को परवाह नहीं है, लेकिन अपने काम को सबसे अधिक कीमती जताने से हिचकिचाहट नहीं महसूस करते, इसीलिए आज ना तो किसान अन्नदाता रहा,ना जवान रक्षक, और ना डाक्टर भगवान! किन्तु वह लोग जो क्षण भर के लिए कोई सहायता कर लें,हम उसके अहसान मंद हो जाते हैं एवं उसके लिए बार बार उसका अहसास कराने लगते हैं, जबकि जो काम उसके द्वारा किया गया होता है वह उसकी जिम्मेदारी का अहम हिस्सा होता है,तब हमें नहीं लगता कि यह भी तो उसके काम का एक हिस्सा था जो उसने किया है, बस अपनी परेशानी से बचने के लिए हम उसे लोभ लालच में भी डाल देते रहे हैं, जिसका परिणाम यह है कि अब आम आदमी को अपने काम का मुल्य चुकाने के लिए प्रस्ताव किया जाता है कि काम होने का यह दाम है करना है तो बताओ नहीं तो फिर अपने ढंग से कराते रहो,हो जाएगा तो ठीक है नहीं तो फिर मुझसे मिल लेना, ।और तब तक दाम बढ़ चुके होते हैं, और जरुरत मंद ले दे के काम कराने का प्रयास करना चाहता है, व्यवस्था चरमरा गई है, और इसी में रहना सीख रहे हैं! अन्यथा यदि यही किसान शासन प्रशासन में बैठे हुक्मरान तक थैली भेंट कर लेता तो, तो वेतन आयोग की तरह उसके लाभ के लिए भी कोई तरीका ढूंढ लिया गया होता!