Arsh M Azeem
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18 Nov 2020 08:21 PM
दुरुस्त फरमाया
सुंदर प्रस्तुति।
इस संदर्भ में मेरे द्वारा प्रस्तुत कविता शीर्षक “अस्तित्व ” अवलोकन करें :
पत्थर पर गिरते ही शीशा चूर-चूर होता है ,
और शीशे पर पत्थर पड़ते ही शीशा चूर-चूर बिखरता है ,
हर बार शीशे को तोड़कर पत्थर अपनी ह़स्ती जताता है ,
और शीशा हर बार टूट कर यह प्रकट करता है कि वह टूटने के लिये ही बना है ,
इसी तरह कुछेक पत्थर दिल इंसान , दूसरों के शीशानुम़ा दिल को तोड़कर अपनी हस्ती काय़म करने की कोशिश में लगे हुए हैं ,
और कुछेक शीशे का दिल लिये हर बार टूटते बिखरते रहते हैं , और हमेशा पत्थर से टक्कर लेने की कोश़िश करते रहते हैं ,
उन्हें पता नहीं की टक्कर लेने के लिए ठोस अस्तित्व की आवश्यकता होती है ,
जिससे उसके टुकड़े अपने अस्तित्व की रक्षा करते हुए टूट कर बिखरने न पाऐं ,
और उसके लिए आत्मविश्वास से परिपूर्ण दिल की जरूरत होती है ,
जो पत्थर दिल इंसानों का मनोबल हिला सकें ,
उन्हें उनके किये आघातों का अनुभव दिला सकें ,
और सिद्ध कर सकें कि अब ये शीशेनुमा दिल
पत्थरदिलों का मुकाबला कर सकते हैं ,
तथा उनमे दरार पैदा करके अपनी सामर्थ्य जता सकें ,
कि अब पत्थरों दिन पूरे हो चुके हैं ,
और पत्थरों को तोड़ने बिखराने के लिए मज़बूत दिल शीशे पैदा हो चुके हैं ,
धन्यवाद !