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सुंदर प्रस्तुति।

आपकी प्रस्तुती को मैने अपने परिवर्तित रूप से प्रस्तुत किया है। कृपया स्वीकृत करें :

इस जिंदगी के सफर में तन्हा होकर रह गया हूं।
साथी ना कोई मंज़िल गुम़शुदा अकेला होकर रह गया हूं।
जमाने से बेख़बर मय़नोशी में बेख़ुद होकर रह गया हूं।
रोशनी से दूर रहना चाहता हूं अंधेरे मुझे रास आते हैं।
अब छलकती मय़ के प्याले मेरे दिल की प्यास बुझाते हैं।
मेरा कोई मुंतज़िर नहीं , कोई मेरा फ़िक्रमंद नहीं।
किसी नज़र की मैं जुस्तजू नहीं , किसी दिल की मैं आरज़ू नहीं।
किसी को तो मेरी याद आनी है , इस क़दर ब़दग़ुमा होकर ज़िंदगी रह गई हैं।
रफ्ता रफ्ता ये जिंदगानी पैमाने और मय़खाने में सिमटकर रह गई है।

श़ुक्रिया !

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बहुत ही सुंदर शब्दों से सजाया कविता को आपने सर । धन्यवाद ।

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