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आदमी बुलबुला है पानी का।
और पानी की बहती सतह पर
टूटता भी है डूबता भी है ।
फिर उभरता है, फिर से बहता है।
न समुंदर निगल सका इसको
न तवारीख़ तोड़ पाई है ।
वक़्त की हथेली पर बहता
आदमी बुलबुला है पानी का।

श़ुक्रिया !

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बहुत ख़ूबसूरत पंक्तियाँ Sirji, बहुत आभार??

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