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दरअसल यह एक अनार सौ बीमार वाली स्थिति है। शिक्षण संस्थाओं के प्रबंधन में एकाधिकार का वर्चस्व है। उनमें जनहित की भावना नहीं है। केवल अपनी स्वार्थ सिद्धि के लिए वे नियमों में परिवर्तन करते रहते हैं। उन्हें भली-भांति पता है कि अभिभावकों के समक्ष विकल्प उपलब्ध नहीं है और उनको उनके समस्त प्रावधानों को मानने के सिवा कोई चारा नहीं है। अभिभावकों में भी व्यक्तिगत चिंता सर्वोपरि है और उनमें समूह चिंता का अभाव होता है।
अतः उन्हें संगठित करना एक कठिन कार्य है।
केवल चर्चाओं और वार्ताओं से इस समस्या का हल नहीं होगा। हमें वास्तविकता के धरातल पर लोगों की सोच में परिवर्तन लाने का प्रयास करना पड़ेगा। तभी हमें इस अभियान में सफलता मिल सकती है।

धन्यवाद !

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