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हमारे ज्ञान सागर में संवेदना के आयामों को परिभाषित करते हुए उसे मानव मन की गहराई और सच्चाई के साथ आंका गया है। वर्तमान समाज के तेजी से बदलते हुए परिदृश्य में संवेदनाओं का शून्य होना हमारे मानवीय मूल्यों के तेजी से होते ह्रास को दिखाता है। असल में मानवीय संवेदनाओं का शून्य होना इंसान के विकास और शून्य सोच की अंतिम रेखा माना जाता है। इन दिनों बढ़ते हुए औद्योगीकरण और बाजार की प्रतिस्पर्धा ने मानवीय संवेदनाओं को सचमुच मृतप्राय कर दिया है। समाज में अक्सर होने वाली घटनाएं भारतीय समाज के समूचे स्वरूप को किस तरह से परिलक्षित कर रही हैं, वह कल्पना से परे है। समाज में लगातार कम हो रहा आपसी भाईचारा कहीं न कहीं जातीयता और क्षेत्रवाद के नए चेहरे को दिखा कर भयभीत कर रहा है। खासतौर पर समाज में वर्चस्वशाली ताकतों का उभार सौहार्द के हालात को सीमित कर रहा है। इसमें सबसे ज्यादा नकारात्मक प्रभाव मानवीय संवेदनाओं पर पड़ रहा है।

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