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भावना में बुद्धि और तर्क का कोई स्थान नहीं है,जो उचित नही है ।
एक कहावत भी प्रचलित है कि ‘कर्मों की ध्वनि शब्दों से ऊँची होती है।’ भावना के वशीभूत होकर व्यक्ति प्रायः अपने कर्तव्यों से भटक जाता है जबकि कर्तव्य ही जीवन को अर्थ और महत्व प्रदान करता है। भावना से कर्तव्य श्रेष्ठ है।
डिजरायली ने कहा कि ‘कर्म के बिना सुख नहीं मिलता।’ भारतीय संस्कृति में भी कर्म को ही प्रधानता दी गई है और इसीलिए उन्हीं महापुरुषों को पूजा गया है, जिन्होंने भावना से ऊपर उठकर कर्तव्य को प्रधानता दी है। महर्षि वेदव्यास ने तो स्पष्ट कहा कि ‘यह धरती हमारे कर्मों की भूमि है।’ कर्तव्य मनुष्य के संबंधों और रिश्तों से ऊपर होता है।

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