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मैं उस मानसिकता का पक्षधर नही हूँ जो नित सवेरे हमें संस्कृति और विरासत के नाम पर सतृप्त करती रहे,प्रगति के नाम पर विश्व गुरु होने की अमूर्त चितंन में ओत प्रोत करती रहे ।अब इस आभासी दुनिया से बाहर निकल कर लौकिक जीवन में समस्या को पहचानने की जरूरत है ।
हम आज अविष्कार में सबसे पीछे क्यों है , क्या हमारे पास बौद्धिक क्षमता नही है? क्या हमारे पास संसाधनों की कमी है ?
इन सभी प्रश्नों के उत्तर ना है ,हमारे पास सब कुछ होते हुए भी हमे अपनी शक्तियों का ज्ञान ही नही है ।मसलन हम सिर्फ आत्म गौरव में जीते है ,प्रगति के नाम पर नक़ल करने में व्यस्त है ।
हमारे देश के पास एक भी पेटेन्ट नही है ,दवाई के लिए हम चाइना पर निर्भर है ,हथियार के लिए हम रूस को खोजते है , हम क्यों इन सब के लिये औरो पर निर्भर है? क्योंकि हमने खुद को आत्मगौरव की भावना में क़ैद कर लिया है और जिंदिगी को लाघव करने में लगे है ।

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