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नफरतों के बीज बोने से फूल नहीं कांटे ही उगेंगे ।
न उम्मीद कर हमदर्दी की इन पत्थर दिल हाकिमों से बदले में तुझको और जख्म ही मिलेंगे ।
जिनकी फितरत धोखेबाजी है उन्हें वफा का सबक क्या देना बदले में तुझको धोखे ही मिलेंगे ।
लगा रहे हैं आग अपने ही आशियाने में आज जिसे संवारा था कभी भाईचारे के जज्बे से ।
बने हुए हैं अब वो मोहरे फ़िरकापरस्तों और सियासत दानों की चालो से ।
आंखों में जो सजाए थे जहां खूबसूरत ख्वा़ब इंसानिय़त के ।
देख रहा हूं मैं मंज़र अब वहां जुल्म तश़द्दु़त और हैव़ानिय़त के ।

आपकी रचना से प्रेरित होकर मैनै कुछ प्रयास किया है। स्वीकृत हो।
धन्यवाद !

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