ग़ज़ल // ग़रीबों को फ़क़त उपदेश की घुट्टी पिलाते हो /
बड़े आराम से तुम चैन की बंसी बजाते हो /
है मुश्किल दौर सूखी रोटियाँ भी दूर हैं हम से /
मज़े से तुम कभी काजू कभी किशमिश चबाते हो /
नज़र आती नहीं मुफ़्लिस की आँखों में तो ख़ुश-हाली /
कहाँ तुम रात-दिन झूठे उन्हें सपने दिखाते हो /
अँधेरा कर के बैठे हो हमारी ज़िंदगानी में /
मगर अपनी हथेली पर नया सूरज उगाते हो /
व्यवस्था कष्टकारी क्यूँ न हो किरदार ऐसा है /
ये जनता जानती है सब कहाँ तुम सर झुकाते हो /
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ग़ज़ल // ग़रीबों को फ़क़त उपदेश की घुट्टी पिलाते हो /
बड़े आराम से तुम चैन की बंसी बजाते हो /
है मुश्किल दौर सूखी रोटियाँ भी दूर हैं हम से /
मज़े से तुम कभी काजू कभी किशमिश चबाते हो /
नज़र आती नहीं मुफ़्लिस की आँखों में तो ख़ुश-हाली /
कहाँ तुम रात-दिन झूठे उन्हें सपने दिखाते हो /
अँधेरा कर के बैठे हो हमारी ज़िंदगानी में /
मगर अपनी हथेली पर नया सूरज उगाते हो /
व्यवस्था कष्टकारी क्यूँ न हो किरदार ऐसा है /
ये जनता जानती है सब कहाँ तुम सर झुकाते हो /