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दिल-ए-नादान का क्या क़सूर है ,
इश्क़ में क़ुर्बान होना आश़िक़ी का दस्तूर है, ,
ग़र वफ़ा निभाए भी तो चाहत पर आश़िक का क्या इख़्तियार ,
जब फ़ितरत -ए- माश़ूक को बावफा होना नामंजूर है ,
श़ुक्रिया !

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बहुत खूब ,धन्यवाद जी

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