तिवारी जी, आपने जो लिखा है उसका मर्म तो वही समझ सकता है जिसने उस जीवन को जिया है, आज देश में कई वर्ग तैयार हो गए हैं, जिसमें नौकरी पेशा वर्ग किसान की मेहनत को ठीक उसी तरह आंक रहे हैं जैसे वह अपने दैनिक कार्यों में अपनाते हैं, और प्रतिफल में निर्धारित रकम उसे हासिल हो रही है,वह यह नहीं देख रहा कि किसानों को छः महीने के बाद फसल मिलती है, वह भी मौसम की मेहरबानी बनी रहे, इसके अलावा वह वर्ग जो बड़ी पूंजी का स्वामी है वह भी किसान की मेहनत को दूसरे नजरिए से देख कर एक साथ भारी भरकम रकम का कारोबारी मान बैठा है, नेताओं को तो किसान सिर्फ वोट बैंक के रूप में देखता है, और पूंजी पतियों को वह मददगार के अनुरूप पाता है,ऐसी स्थिति में किसान के पक्ष पुरे किसान ही नहीं है,तब उनकी लड़ाई वैसे ही कमजोर हो जाती है! फिर भी वह अपनी जंग जारी रखें कुछ तो मिलेगा।
तिवारी जी, आपने जो लिखा है उसका मर्म तो वही समझ सकता है जिसने उस जीवन को जिया है, आज देश में कई वर्ग तैयार हो गए हैं, जिसमें नौकरी पेशा वर्ग किसान की मेहनत को ठीक उसी तरह आंक रहे हैं जैसे वह अपने दैनिक कार्यों में अपनाते हैं, और प्रतिफल में निर्धारित रकम उसे हासिल हो रही है,वह यह नहीं देख रहा कि किसानों को छः महीने के बाद फसल मिलती है, वह भी मौसम की मेहरबानी बनी रहे, इसके अलावा वह वर्ग जो बड़ी पूंजी का स्वामी है वह भी किसान की मेहनत को दूसरे नजरिए से देख कर एक साथ भारी भरकम रकम का कारोबारी मान बैठा है, नेताओं को तो किसान सिर्फ वोट बैंक के रूप में देखता है, और पूंजी पतियों को वह मददगार के अनुरूप पाता है,ऐसी स्थिति में किसान के पक्ष पुरे किसान ही नहीं है,तब उनकी लड़ाई वैसे ही कमजोर हो जाती है! फिर भी वह अपनी जंग जारी रखें कुछ तो मिलेगा।