विनोद सिल्ला
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14 Nov 2020 08:33 AM
Thanks sir
Thanks sir
सुंदर भावपूर्ण प्रस्तुति ।
इसी प्रकार भाव मैंने अपनी रचना शीर्षक “बचपन” में एक बाल श्रमिक के अंतर्मन की व्यथा के चित्रण में प्रस्तुत की है , अवलोकन करें :
एक बचपन अपने अधनंगे बदन को मैले कुचैले कपड़ों मे समेटता।
अपनी फँटी बाँह से बहती नाक को पौछता।
बचा खुचा खाकर भूखे पेट सर्द रातों में बुझीभट्टी की राख में गर्मी को खोजता।
मुँह अन्धेरे उठकर अपने नन्हे हाथों से कढ़ाई को माँजता।
और यह सोचता कि वह भी बड़ा होकर मालिक बनेगा।
तब अपने से बचपन को अधनंगा भूखा न रहने देगा।
न ठिठुरने देगा उन्हे सर्द रातों को।
और न फटने देगा उनके नन्हे हाथों को।
तभी भंग होती है तंद्रा उसकी।
जब पड़ती है एक लात मालिक की।
और आती है आवाज़।
क्यों बे दिन मे सोता है?
तब पथराई आँखें लिये वह दिल ही दिल मे रोता है।
ग्राहकों की आवाज़ पर भागता है।
कल के इन्तज़ार मे यह सब कुछ सहता है ! सहता है ! सहता है !
धन्यवाद !