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इसी प्रकार एक गरीब बालक की मनोभावों की अभिव्यक्ति मैंने अपनी कविता शीर्षक ” बचपन ” में प्रस्तुत की है जो निम्न है :

एक बचपन अपने अधनंगे बदन को मैले कुचैले कपड़ों मे समेटता।
अपनी फँटी बाँह से बहती नाक को पौछता।
बचा खुचा खाकर भूखे पेट सर्द रातों में बुझीभट्टी की राख में गर्मी को खोजता।
मुँह अन्धेरे उठकर अपने नन्हे हाथों से कढ़ाई को माँजता।
और यह सोचता कि वह भी बड़ा होकर मालिक बनेगा।
तब अपने से बचपन को अधनंगा भूखा न रहने देगा।
न ठिठुरने देगा उन्हे सर्द रातों को।
और न फटने देगा उनके नन्हे हाथों को।
तभी भंग होती है तंद्रा उसकी।
जब पड़ती है एक लात मालिक की।
और आती है आवाज़।
क्यों बे दिन मे सोता है?
तब पथराई आँखें लिये वह दिल ही दिल मे रोता है।
ग्राहकों की आवाज़ पर भागता है।
कल के इन्तज़ार मे यह सब कुछ सहता है ! सहता है ! सहता है !

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19 Aug 2020 12:10 PM

Bahut hi sundar kavita

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