गम़े हिज्र में रातें काटे नहीं कटतींं ।
चांद उदास लगता है चांदनी भी खुशगवार नहीं लगती।
वो क्या गए रूठ गई ये ज़िंदगी,
हंसी खो गई , खुशी खो गयी ,
बे मजा हो गई ये ज़िंदगी।
अब तो बहारों में भी बागों के फूल मुरझाए से लगते हैं।
शायद वो भी मेरे महबूब के इंतज़ार में सोग़वार से लगते हैं।
गम़े हिज्र में रातें काटे नहीं कटतींं ।
चांद उदास लगता है चांदनी भी खुशगवार नहीं लगती।
वो क्या गए रूठ गई ये ज़िंदगी,
हंसी खो गई , खुशी खो गयी ,
बे मजा हो गई ये ज़िंदगी।
अब तो बहारों में भी बागों के फूल मुरझाए से लगते हैं।
शायद वो भी मेरे महबूब के इंतज़ार में सोग़वार से लगते हैं।
श़ुक्रिया !