एकाकीपन वह अवस्था है जो मनुष्य को अंतर्द्वंद के मंथन से असहाय होने की अनुभूति देती है। जब वह अपने अंदर उठते हुए उद्गारों को प्रकट करने में असमर्थ पाता है। इस समय उसे एक साथी की तलाश होती है जो उसकी भावनाएं समझ सके और उससे विचार-विमर्श कर सके। साथी के अभाव की स्थिती मेंं उसे अपना एकाकीपन सालने लगता है और उसकी सोच में नकारात्मकता की अधिकता होने लगती है।
जिसके फलस्वरूप उसमें मानसिक अवसाद की स्थिति उत्पन्न होती है। अतः समय रहते यह जरूरी है कि उसकी स्थिति को समझते हुए आवश्यक कदम उठाए जाएं जिससे उसे इस हताशा की स्थिति से उबरने में मदद मिल सके। दरअसल समाज में व्यक्तिगत स्वार्थ परता के चलते दूसरों की भावनाओं की अवहेलना करते हैं। जिसके फलस्वरूप व्यक्ति विशेष अपने आप को समाज से अलग-थलग महसूस करने लगता है और एकाकीपन का शिकार हो जाता है। समाज में लोग कामयाबी का साथ देते हैं और नाकामयाब होने पर कन्नी काटकर अलग हो जाते हैं।
समाज की इस सोच में बदलाव लाने की आवश्यकता है।
तभी इस मनोदशा के कुप्रभाव से बचा जा सकता है।
एकाकीपन वह अवस्था है जो मनुष्य को अंतर्द्वंद के मंथन से असहाय होने की अनुभूति देती है। जब वह अपने अंदर उठते हुए उद्गारों को प्रकट करने में असमर्थ पाता है। इस समय उसे एक साथी की तलाश होती है जो उसकी भावनाएं समझ सके और उससे विचार-विमर्श कर सके। साथी के अभाव की स्थिती मेंं उसे अपना एकाकीपन सालने लगता है और उसकी सोच में नकारात्मकता की अधिकता होने लगती है।
जिसके फलस्वरूप उसमें मानसिक अवसाद की स्थिति उत्पन्न होती है। अतः समय रहते यह जरूरी है कि उसकी स्थिति को समझते हुए आवश्यक कदम उठाए जाएं जिससे उसे इस हताशा की स्थिति से उबरने में मदद मिल सके। दरअसल समाज में व्यक्तिगत स्वार्थ परता के चलते दूसरों की भावनाओं की अवहेलना करते हैं। जिसके फलस्वरूप व्यक्ति विशेष अपने आप को समाज से अलग-थलग महसूस करने लगता है और एकाकीपन का शिकार हो जाता है। समाज में लोग कामयाबी का साथ देते हैं और नाकामयाब होने पर कन्नी काटकर अलग हो जाते हैं।
समाज की इस सोच में बदलाव लाने की आवश्यकता है।
तभी इस मनोदशा के कुप्रभाव से बचा जा सकता है।
धन्यवाद !