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गैरों के दिए ज़ख्म वक्त गुजरते भरते हैं।
पर अपनों के दिए ज़ख्म वक्त गुजरते गहराते हैं।
जब अपना ही बेवफ़ा हो ।
तो ग़ैर से उम्म़ीद -ए- वफ़ा कैसे हो।
जब मांझी ही खुद अपनी नैया को डुबाए।
तब उसे मँझधार में डूबने से कौन कैसे बचाए।

श़ुक्रिया !

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