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ज़िंदगी की राह पर जो भी हमसफर बना अपनी अपनी मंज़िल आने पर बिछड़ता चला गया।
जिस तरह चांदनी श़ब में सितारों को छोड़ चाँद आगे चलता चला गया।
हमे आरज़ू थी मोहब्ब़त की एक अजनबी से जिसका फ़क्त दीदार ही फ़रेबी निकला।
जिस राह पर निकले थे हम अपनी मंज़िल पाने को उस राह ने हमें चौराहे पर लाकर पशेमाँ करके रख दिया।
हम तो समझे थे उन गुलाब़ों में म़हक है पर हक़ीक़त में वो म़हक नकली गुलाब़ों के ग़ुलदस्त़े में निकली।
हम वो बादशाह थे जिसे सब कुछ हासिल होते हुए भी वक़्त दग़ा दे गया।
ताउ़म्र सपने बुनते रहे महल खरीदने के गुज़ार ज़िंदगी किराए के आश़ियानों में। होश़ संभाला तो इल्म़ हुआ ज़िंदगी गुज़र गई इसी कश़मकश़ में।

श़ुक्रिया !

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Aman 6.1 Author
27 Apr 2020 11:36 AM

लाजवाब जी

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