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4 Mar 2020 03:35 PM

बहुत सुंदर
अपना बचपन याद आ गया और उसमें कुछ खो सा गया।
विशेष रूप से

“दुनियादारी की समझ और न होशियारी थी
हंस कर मिलने वाले सब अपने ही लगते थे”

कितना निश्चल भाव है ।आज तो हर नये व्यक्ति के प्रति संशय ही रह्ता है।
इस कविता की प्रशंसा हेतु मुझे शब्द ही नहीं मिल रहे है।

Simply Awesome

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4 Mar 2020 03:49 PM

Thankyou very much

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