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5 Apr 2022 04:26 PM

Adbhut

20 Jul 2022 01:17 PM

धन्यवाद

धन्यवाद नवीन ।

27 Dec 2016 09:13 PM

Super.

26 Dec 2016 07:32 PM

गजब का चिंतन। मान गए साहित्य समाज का दर्पण है।

धन्यवाद मित्रवर श्यामाचरण जी ।

नहीं बंधुवर चूक नहीं यह मेरे मध्यप्रदेश के कतिपय बैंकर्स का हाल बयाँ किया गया है , अधिकाँश बैंकर्स तो मेरी दृष्टि में आज भी उचित प्रतीत होते हैं , मैं नोट-बंदी का भी विरोधी नहीं हूँ , मैंने तो महज़ इस प्रदेश की व्यवस्था ने जिस तरह इस पुनीत काम में भी भ्रष्टाचार का मार्ग निकालकर ग़रीबों को अनावश्यक परेशान कर दिया तो ये लेखनी वरवश चल पड़ी ।
फिर भी मैं पुन: विचार करूँगा ।

नोटबंदी के कुछ तात्कालिक असर बयां करने में आप सफल रहे हैं। लेकिन 5-6वे शे’रों में “अपवाद” को क्यों “नियम” मान लिया – समझ से परे है। मैं अपने अनुभव से कह सकता हूँ, किसी भी और मशीनरी पर यह अगर जिम्मेदारी होती तो आज “कुछ और” दृश्य होता। इस मुद्दे पर आप भटक गए लगते है। प्रार्थना करता हूँ, अपने बनाए प्रतिमान से नीचे न आएं।

धन्यवाद मित्रवर ।

धन्यवाद बेटा ।

25 Dec 2016 10:41 AM

Very well said sir ji

बैकों की लाइन में लगे ग़रीबों और किसानों का भोगा हुआ यथार्थ , जो मैंने देखा उसे लिख दिया ।

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