शिव स्तुति
शिव स्तुति (चंचरी छंद) २१२२ २१२२ २१२२ २१२
अवगुणों का आप ही, निष्पक्ष हो करते दमन।
हे विधाता! नीलकण्ठी!, मैं करूं तुमको नमन।।
निर्गुणी निर्कल्प होकर, आप ही निर्वाण हो।
ब्रह्म व्यापक ज्ञान वाले, इस जगत के प्राण हो।।
व्याप्त हो तुम चर-अचर में, जन्म तुम से ओम् का।
आपका आकार जैसे, भव्य व्यापक व्योम का।।
अभ्र से उतरी जटा में, गंग करने आचमन।
हे विधाता! नीलकण्ठी!, मैं करूं तुमको नमन।।
जन्म दाता ईश हो संसार के अवसान हो।
वास करते हिम गिरी पर, तुम गुणों के खान हो।।
शब्द को नि:शब्द करते, काल का तुम काल हो।
निरपराधी पर दयामय, दुष्ट पर विकराल हो।।
काल भी है कांपता जब, खोलते तीजा नयन।
हे विधाता! नीलकण्ठी!, मैं करूं तुमको नमन।।
बर्फ सम शीतल व अद्भुत, रूप है प्रभु आपका।
कर गहन चिंतन हमेशा, नाश करते ताप का।।
गात सुंदर है सुशोभित, चन्द्र सिर है धारते।
हे दयानिधि! दीन रक्षक, भक्तजन को तारते।।
व्याल धारी हे! पिनाकी, कण्ठ में विष का वमन।
हे विधाता! नीलकण्ठी!, मैं करूं तुमको नमन।।
हे अखण्डा!, हे अजन्मा!, हो भयंकर नाथ तुम।
कर डमरु अरु शूल भगवन, भाविनी के साथ तुम।।
श्रेष्ठ तेजोमय स्वरूपा, मूल से तुम हो परे।
दुष्टता का नाश करते, भय भी तुम से है डरे।।
चंद्रघण्टा को प्रिये तुम, प्रीति के हो प्रस्फुटन।
हे विधाता! नीलकण्ठी!, मैं करूं तुमको नमन।।
काल बंधन से परे हो, आदि भी तुम अन्त भी।
हर्ष से संचित सदा मन, धर्म रक्षक सन्त भी।।
पंचशर नाशी कपर्दी, हे! मलंगी आत्मा।
भक्त का जो त्राण करते, तुम वही परमात्मा।।
काल हो विकराल हो तुम, देवता प्रभु हो शमन।
हे विधाता! नीलकण्ठे, मैं करूं तुमको नमन।।
मैं न जानूं पाठ पूजा, है न सात्विक आचरण।
हो कृपा प्रभु आपकी! बस ध्यान हो पावन चरण।।
मूढ़ मानव मन निराशा, के गहन तम से घिरा।
थाम लो पतवार जीवन, दास चरणों में गिरा।।
मैं उपासक नाथ तेरा, हो सदा ही शुद्ध मन।
हे विधाता! नीलकण्ठी!, मैं करूं तुमको नमन।।
✍️पं.संजीव शुक्ल ‘सचिन’