— बदल जाता है इंसान —
नभ वही और धरती वही
मौसम वही हर ऋतू वही
समुंदर वही, नदियाँ वही
रास्ते वही और घराने वही
कभी नही बदलते हैं
पर जीवन का हर साल
नए रूप में बदल जाता है
कुछ न कुछ नया सा बन जाता है
बहुत कुछ खो सा जाता है
और नया अपने किसी नए रूप में
बन संवर के आ ही जाता है
साथ ही साथ देखा होगा
इंसान कितना बदल जाता है
बचपन की देहलीज को
लांघते हुए , यौवन के दर पर
चला जाता है
बन जाता है नयें अंदाज में
फिर परिवार से बंध जाता है
कितने तूफ़ान आते हैं
कितने अरमान पिघल से जाते हैं
कितना कुछ सह कर जाता है
और अंदर से कितना टूट जाता है
कभी नाकाम , कभी हैरान
न जाने किस किस से
उलझ उलझ कर अपने काम बनता है
जीवन के सच से विमुख होकर
परमात्मा को भूल जाता है
सच है न इंसान कितना बदल जाता है
अजीत कुमार तलवार
मेरठ