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25 Oct 2021 · 18 min read

प्रोफेसर ईश्वर शरण सिंहल का साहित्यिक योगदान (लेख)

प्रोफेसर ईश्वर शरण सिंहल का साहित्यिक योगदान
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ईश्वर शरण सिंहल सजग मन बुद्धि और विचार हैं
सात्विक सरल शुचि सर्व प्रियता का लिए व्यवहार हैं
सब प्राणियों से प्रेम जिनके धर्म के आधार हैं
अमृत – भरे जीवित उपन्यासों में रचनाकार हैं
प्रोफेसर ईश्वर शरण सिंहल हिंदी के महान साहित्यकारों में अग्रणी हैं । मूलतः एक उपन्यासकार के रूप में आपकी यात्रा आरंभ हुई । 1976 में पहला उपन्यास “जीवन के मोड़” ।प्रकाशित हुआ । उपन्यास प्रकाशित होते ही कथा जगत में आपका नाम प्रथम पंक्ति के उपन्यासकारों में लिया जाने लगा। दूसरा उपन्यास लगभग दो दशक बाद 1998 में “राहें टटोलते पाँव” नाम से प्रकाशित हुआ। जहाँ एक ओर “जीवन के मोड़” उपन्यास में आपने इलाहाबाद विश्वविद्यालय के विद्यार्थी जीवन के संस्मरणों का भरपूर उपयोग किया तथा प्रेम के वियोग-पक्ष की पीड़ा को शब्द दिए ,वहीं दूसरी ओर “राहें टटोलते पाँव” संसार को एक नई दृष्टि से डूब कर देखने वाला उपन्यास था । “जीवन के मोड़” में जीवन का अधूरापन इस प्रकार उपन्यास के नायक के सामने आकर उपस्थित हो गया कि वह एक ओर भीतर से बुरी तरह टूट जाता है लेकिन दूसरी ओर उसकी जिजीविषा उसे फिर से नए उत्साह के साथ जीवन-पथ पर आगे चलने के लिए प्रेरित करती है ।
यही जीवन का मोड़ है । ऐसे न जाने कितने मोड़ व्यक्ति के जीवन में आते हैं और उपन्यासकार ने उन उतार-चढ़ावों को मनोवैज्ञानिक आकलन के साथ पाठकों के सामने इस प्रकार प्रस्तुत किया कि पढ़ने के बाद कभी आँख में आँसू आने लगते हैं और कभी नायक के आत्मविश्वास और दृढ़ इच्छा शक्ति के साथ नए सिरे से जिंदगी की शुरुआत करने के संकल्प पर वाह-वाह की आवाज हृदय से निकलने के लिए बाध्य हो जाती है । “राहें टटोलते पाँव” को कुछ ज्यादा व्यापक स्वीकृति मिली । कारण यह रहा कि इस में रोजमर्रा की समाज की जिंदगी का चित्र उपन्यासकार ने खींचा था। अस्पताल – डॉक्टर – बीमारी और मरीज इस उपन्यास के केंद्र बिंदु थे । इन्हीं के इर्द-गिर्द मेडिकल शब्दावली का भरपूर उपयोग करते हुए उपन्यासकार ने कथा को इतना रोचक बना दिया कि यह भारत के आम आदमी की पीड़ा को अभिव्यक्ति देने वाला सशक्त स्वर बन गया। इसमें एक ऐसे चिकित्सक का चित्र नायक के रूप में उपन्यासकार ने प्रस्तुत किया जिसके हृदय में समाज के लिए कुछ कर गुजरने की चाह है । जो केवल भौतिक समृद्धि तक सीमित नहीं है । मनुष्यता की सेवा जिसका ध्येय है । संवेदनाओं से भरा हुआ उसका हृदय बार-बार आम आदमी की तकलीफ को दूर करने के लिए धड़कता है । बोलचाल की भाषा का प्रयोग करने में उपन्यासकार सिद्ध-हस्त है। जहां जरूरत पड़ी पूरा पूरा वाक्य अंग्रेजी में प्रस्तुत करने में कथाकार को कोई संकोच नहीं होता । जब आवश्यकता पड़ रही है साधारण बोलचाल के शब्दों का का प्रयोग कर लिया और कहीं मांग के अनुरूप कुछ कठिन शब्दों का भी प्रयोग करने से परहेज नहीं किया ।
संप्रेषणीयता ही लक्ष्य रहा । वह लेखन ही क्या जो पाठकों तक न पहुंचे और उनके जीवन की राहों को न बदल दे ? कदाचित लेखन के प्रति अपना दृष्टिकोण उपन्यासकार प्रोफेसर ईश्वर शरण सिंघल ने “राहें टटोलते पाँव”की भूमिका में बिल्कुल सही इस प्रकार से लिखा था। 6 सितंबर 1997 में यह भूमिका लिखी गई।। उपन्यासकार का कहना है :-
“जीवन का अर्थ” शीर्षक से एक पुस्तक लिखने बैठा था । कई अध्याय भी पूरे कर लिए । फिर लगा यह तो नीतिशास्त्र का ग्रंथ बन जाएगा ,जिसमें जगह-जगह दार्शनिक विवेचना भी होगी किंतु नीरस चिंतन के ऐसे मरूप्रदेश में कौन विचरण करना चाहेगा ? और जो करेंगे भी वह कितने से होंगे ? तो विचार आया कि जीवन की समीक्षा प्रस्तुत करने से अच्छा है जैसे वह जिया जाता है उसको वैसा ही क्यों न चित्रित करो ? ऐसा करना प्रत्यक्ष भी होगा और रोचक भी ।।”
उपन्यासकार का निर्णय सही था ।विचारों को लोग एक तरफ रख देते हैं लेकिन विचारों के आधार पर जो जीवन के रंग कथा के रूप में प्रस्तुत किए जाते हैं, उसकी छाप पाठकों पर स्थाई रूप से पड़ती है और पढ़ने में रोचकता भी बनी रहती है। इसलिए उपन्यासकार प्रोफेसर ईश्वर शरण सिंहल ने नीरस विचारों की प्रस्तुति के स्थान पर कथा-साहित्य को अभिव्यक्ति का माध्यम बनाया। साहित्य जगत को दो श्रेष्ठ उपन्यास प्रदान करना जहाँ आपका प्रमुख योगदान रहा ,वहीं हिंदी में बेहतरीन कहानियाँ पाठकों तक पहुंचा देना आपने अपने जीवन के प्रमुख उद्देश्यों में शामिल किया । ऐसा नहीं है कि आपने लेख नहीं लिखे अथवा विचार प्रधान सामग्री समाज को प्रदान करने के लिए योगदान किसी से कम किया हो । समय-समय पर आपके विचारों को छोटे और बड़े लेखों के रूप में पाठकों ने लगातार पढ़ा है । आपने समाज, धर्म ,राजनीति ,शिक्षा आदि सभी ज्वलंत विषयों पर लेखक के रूप में भी अपनी कलम बखूबी चलाई है । प्रारंभ में आपने अनेक नाटक लिखे। नाटक “हर्षवर्धन” आकाशवाणी लखनऊ से प्रसारित भी हुआ। यह लेखन के शुरुआत का दौर था । उसी समय आपके द्वारा लिखित प्रतीक्षा ,हम एक हैं तथा अदृश्य हाथ नाटकों ने पाठकों को काफी आकृष्ट किया था ।
प्रारंभ में आप अंग्रेजी में लिखते थे। आपकी अंग्रेजी में लिखी हुई कहानियाँ अंग्रेजी के समाचार पत्रों में प्रकाशित भी हुईं। जो उपन्यास “जीवन के मोड़” नाम से 1976 में प्रकाशित हुआ था ,वास्तव में उसकी भी शुरुआत “टर्न्स ऑफ लाइफ” नाम से अंग्रेजी उपन्यास के रूप में आपने की थी। लगभग 100 प्रष्ठ उपन्यास के अंग्रेजी में लिख भी गए थे लेकिन फिर आपको महसूस हुआ कि अंग्रेजी में लिखित उपन्यास को पढ़ने वाले कितने से लोग होंगे ? यह 70 का दशक था और उस समय आपका आकलन शत प्रतिशत रुप से सही था । हिंदी माध्यम की पढ़ाई का एकाधिकार चारों ओर उपस्थित था । एक जिले में मुश्किल से इंग्लिश मीडियम का एक स्कूल हुआ करता था । उसमें भी हाई स्कूल के बाद अध्ययन की सुविधा नदारद रहती थी। आपने हिंदी में लिखा यह हिंदी जगत का सौभाग्य रहा लेकिन हो सकता है कि अगर अंग्रेजी में आपने उपन्यास लिखे होते तो आपको अंग्रेजी का एक बड़ा विश्वव्यापी बाजार उपलब्ध होता और आप सर्वाधिक बिक्री वाले लेखकों में शुमार किए जाते ।। लेकिन जो आत्मीयता और अपनापन अपनी भाषा में लिखकर अपने समाज और इर्द-गिर्द के लोगों तक भावनाओं के संप्रेषण में महसूस होता है, उसका शतांश भी किसी बाहरी भाषा के प्रयोग से प्राप्त नहीं हो सकता । हिंदी जगत इस दृष्टि से प्रोफेसर ईश्वर शरण सिंहल जी का ऋणी है कि आपने अपने जीवन के सर्वोत्तम वर्ष तथा लेखन हिंदी जगत को समर्पित किया ।
केवल उपन्यास ही नहीं कहानी-लेखन के क्षेत्र में भी आपका योगदान अपने आप में मील के पत्थर की तरह आँका जाएगा। 1976 में आप की कहानी “अधूरा” डॉक्टर सतीश जमाली ,इलाहाबाद द्वारा संपादित “26 नए कहानीकार” में चयनित हुई ।1979 में मुंशी प्रेमचंद के पुत्र श्रीपत राय द्वारा प्रकाशित एवं संपादित पत्रिका “कहानी” ने एक पुरस्कार योजना शुरू की और उसमें आपकी पुरस्कृत कहानी चयनित होकर प्रकाशित हुई । आपके लेखन में विद्यमान मानवीय अनुभूतियों की गहराई में जाकर दिल की बातों को बारीकी के साथ शब्द देने की कला को व्यापक सराहना मिली । आखिर मिलती भी क्यों न? कहानियों के क्षेत्र में आपने एक बिल्कुल नए युग का सूत्रपात कर दिया । स्त्री और पुरुष के प्रेम को जितना विस्तार से आपने वर्णित किया ,वह कहीं और देखने में नहीं आता । प्रेम के उद्वेगों को आपने शब्द दिए। जीवन की परिपूर्णता को प्रेम के समकक्ष रखा। आप की नायिकाएँ प्रायः नायक से बिछुड़ती हैं और नायक के जीवन में एक गहरा अधूरापन छा जाता है । वह टूट जाता है और बिखर जाता है । जीवन का कोई अर्थ अब उसके लिए शेष नहीं रह पाता। मनुष्य जीवन में वियोग की त्रासदी को अगर उसकी पूरी प्राणवत्ता के साथ पढ़ना और समझना हो तो प्रोफेसर ईश्वर शरण सिंहल की कहानियों से बढ़कर और कोई माध्यम नहीं हो सकता । आपकी कहानियों में नायक अपने प्रेयसी को पाकर जीवन को धन्य समझता है । प्रेम आपकी दृष्टि में मनुष्य को पूर्ण बनाता है ।उसके जीवन में जीवन के प्रति आस्था के भाव को जगाता है और व्यक्ति विवाद और संशय से रहित होकर अंतर्मन में गहरी संतुष्टि का अनुभव करता है । लेकिन फिर सब कुछ टूट कर बिखर जाता है और उसके बाद आप कहानी को इस कलात्मकता के साथ एक नया मोड़ देते हैं कि जिसमें नायक समुद्र के झंझावातों से अपने आप को सकुशल बाहर लाने में सफल हो जाता है । वह नए सिरे से जिंदगी शुरु करता है प्रेम को अब वह उपासना के पावन धरातल पर प्रतिष्ठित कर देता है । प्रिय की स्मृतियां उसके लिए मार्गदर्शक बन जाती हैं । अतीत के रससिक्त क्षण जीवन को नई ऊर्जा देते हैं । कर्तव्य पथ पर फिर कहानी का नायक आगे बढ़ जाता है । अब उसके सामने सिवाय कर्तव्य के और कुछ शेष नहीं रहता । यहाँ आकर जीवन को विराट दृष्टि मिलती है । प्रेम पूजा के उच्च भाव से अभिमंत्रित हो उठता है । प्यार तपस्या बन जाता है । त्याग और बलिदान जैसे उच्च मूल्य प्रेम की परिधि में अपनी संपूर्ण आस्था के साथ चमक उठते हैं ।
1976 में “26 नए कहानीकार” शीर्षक से जो आप की कहानी “अधूरा” प्रकाशित हुई ,उसके कुछ अंश इस दृष्टि से उद्धृत किए जा सकते हैं ताकि उससे आपकी कथा-शैली की रोचकता का तथा विचारधारा की मार्मिकता का अनुमान कुछ सुधी जन उठा सकते हैं::-
वह बड़े मोह से मेरी ओर देखती है ,जैसे मुझे अपने में भर लेना चाहती हो। फिर अपने हाथ मूर्ति के समक्ष जोड़ लेती है। उसे देखकर मेरे हाथ भी जुड़ जाते हैं। वह थोड़ा मुस्कराती है। मैं जानता हूँ उसके मुस्कराने में व्यंग है । शायद मन में कह रही है— ‘बड़े नास्तिक बनते थे जनाब, बस जरा सी देर में पिघल गये ।”
हाँ, मैं पिघल गया । इस समय पूर्ण आस्थावान हूँ। मेरी आस्था की सृष्टि मेरे वाम पक्ष में खड़ी है।
वह नतमस्तक होती है, देखकर मैं भी मस्तक झुका लेता हूँ। उसने आँखें बन्द कर ली हैं, मैं भी बन्द कर लेता हूँ। वह पास खड़ी भगवान से क्या कह रही है, मैं नहीं जानता । जो मैं कह रहा हूँ वह यह है—’हे बद्रीविशाल, आज मैं धन्य हूँ। मेरा यह क्षण अपने में परिपूर्ण है। मुझे और कुछ नहीं चाहिए।’
फिर एकदम स्वप्न बदला था। मैं देखता हूँ उसकी माँग में सिंदूर और माथे पर बिन्दी है। जैसे भीषण भूचाल आ जाता है । पृथ्वी हिलने लगती है। सारा मन्दिर प्रकम्पित हो उठता है, सिंहासन डोलता है। मेरे पैर भी डगमगा रहे हैं। एक भयानक ज्वाला ने मन्दिर को घेर लिया है। मैं स्वप्न में देखता हूँ, मैं पागल हो गया हूँ-बाल अस्त-व्यस्त, दाढ़ी बढ़ी हुई और आँखों में भयानक बर्बरता। मेरा पुरुष रूप विकृत हो गया है। मैं उसको वहीं छोड़कर भाग निकलता हूँ। मेरे अन्दर ज्वाला ही ज्वाला है। मैं अचेत होकर कहीं सड़क पर गिर पड़ता हूं शायद वह मेरे अंतिम क्षण हैं । चाहता हूँ अलकनन्दा में जाकर जल-समाधि ले लूँ जिससे मेरी हर क्षण सालती वेदना का अन्त हो जाये ।
किन्तु नहीं, मैं ऐसा नहीं करूँगा । यह मेरी आस्थाओं के विरुद्ध है। मैं यथार्थ को साहस के साथ भोगना चाहता हूँ। शायद बद्री विशाल मेरी इच्छा पूरी करना चाहते हैं। मेरे अन्दर धीरे-धीरे परिवर्तन हो रहा है।
मैं ऐसा नहीं करूंगा। यह मेरी आस्थाओं के विरुद्ध है।
मैं यथार्थ को साहस के साथ भोगना चाहता हूँ। शायद बद्री-विशाल मेरी दूसरी इच्छा पूरी करना चाहते हैं। मेरे अन्दर धीरे-धीरे परिवर्तन हो रहा है।
मैं उठ खड़ा होता हूँ और अपने दोनों हाथ कसकर वक्ष पर बाँध लेता हूँ । मेरा सीना अपने आप थोड़ा तन गया है । मैं आँखें बन्द कर अपने अन्दर शीतल वायु को गहरा खींचने लगता हूँ। जैसे एक अज्ञात शक्ति को ग्रहण कर रहा हूँ। फिर कहता हूँ ‘हे बद्रीविशाल, मुझे शक्ति दो कि मैं अकेला जीवन जी
सकूँ । मुझे शक्ति दो कि इस अधूरेपन में ही पूरापन खोज सकूँ। मुझे किसी और के साथ की आवश्यकता अनुभव न हो ।
फिर मैं शिला छोड़कर धीरे-धीरे उस राह पर चल देता हूँ जो सूनी और टेढ़ी है।
हिंदी काव्य के क्षेत्र में आपने श्रेष्ठ रचनाएँ काव्य-जगत को प्रदान कीं। जब प्रसिद्ध कवि श्री गोपाल दास नीरज ने “हिंदी की रुबाइयाँ” शीर्षक से एक काव्य संग्रह संपादित किया और अखिल भारतीय स्तर पर उसके लिए रचनाकारों का चयन किया तब प्रोफ़ेसर ईश्वर शरण सिंहल की एक रूबाई ने भी उसमें आदर पूर्वक स्थान प्राप्त किया। प्रोफ़ेसर ईश्वर शरण सिंहल की वह प्रकाशित रुबाई इस प्रकार है:-
निशा में भी जियो हँसकर ,सितारों ने कहा हमसे
लूटा दो प्यार लहरों पर ,किनारों ने कहा हमसे
करो तुम मोल जीवन का ,तड़प से वेदनाओं से
शलभ ने झूम कर लौ पर ,इशारों से कहा हम से
अप्रतिम काव्य प्रवाह स्वयं में समेटे हुए हिंदी की यह रूबाई प्रोफेसर साहब की उच्च कोटि की काव्य- कला प्रतिभा का परिचय स्वयं दे रही है। न केवल प्रवाह की दृष्टि से अद्भुत लयात्मकता के साथ यह पंक्तियां हमारे हृदय को स्पर्श करती हैं ,अपितु इस में एक जीवन दर्शन भी प्रस्फुटित होता है । यह प्रेम में समर्पित और बलिदान हो जाने के भावों को उपासना के स्तर तक ले जाने का जीवन दर्शन है। जिसमें विपरीत परिस्थितियों में भी अनुकूलता का मार्ग खोज लेने की चाह है। प्रतिकूलता को आदर पूर्वक जीवन में स्वीकार करने का भाव है और इससे बढ़कर जीवन का मूल्यांकन किसी भौतिक उपलब्धि के आधार पर करने के स्थान पर मनुष्य को जीवन जीते हुए जो वेदना और पीड़ा मिलती है उससे जीवन का मूल्यांकन करने का आग्रह है । इसके लिए कवि ने लौ पर अपने आप को बलिदान कर देने वाले शलभ का उदाहरण सामने रखा है, जिसे प्रेम के पथ पर किसी प्रकार की कोई चाह नहीं होती । वह बदले में कुछ नहीं मांगता। प्रेम करते हुए प्रेम के पथ पर चलना ही उसके लिए यथोचित पुरस्कार है ।
असाधारण प्रतिभा के धनी प्रोफेसर ईश्वर शरण सिंहल ने इलाहाबाद विश्वविद्यालय में 1937 से 1939 तक एम.ए. करने के दौरान भी अपनी लेखककीय प्रतिभा को बखूबी स्थापित किया । विश्वविद्यालय में आयोजित निबंध प्रतियोगिता में आप ने प्रथम स्थान प्राप्त किया था । इस निबंध प्रतियोगिता का विषय “आदर्शवादी आधार पर आदर्श समाज की रचना” था । विषय आपके मनोनुकूल था। वास्तव में यह स्वतंत्रता आंदोलन का वह दौर था ,जब देश आजादी के लिए छटपटा रहा था । जहाँ एक ओर नवयुवक ईश्वर शरण सिंहल ने विश्वविद्यालय की वाद विवाद प्रतियोगिता में प्रथम स्थान प्राप्त किया वहीं दूसरी ओर उसने देश की स्वतंत्रता के लिए कुछ करने तथा आंदोलन के विचारों के साथ स्वयं को जोड़ने के लिए स्वयं से प्रश्न करने आरंभ कर दिए। उस समय गांधीजी का जादू हर युवक के सिर पर चढ़कर बोल रहा था । खादी देशभक्तों की पोशाक बन चुकी थी तथा अंग्रेजों को भारत से खदेड़ने की भावना प्रत्येक देश भक्तों के हृदय में बलवती थी। नवयुवक ईश्वर शरण सिंहल ने इन सारी प्रवृत्तियों को आत्मसात किया तथा स्वतंत्रता की अलख जगाने के काम में इलाहाबाद विश्वविद्यालय में लग गए । पढ़ाई के साथ-साथ जीवन भारत माता की स्वतंत्रता के चिंतन कार्य में रत रहने लगा । खादी पहनने का व्रत धारण कर लिया । उस समय गिनती के नौजवानों खादी के वस्त्र पहनकर इलाहाबाद विश्वविद्यालय की सड़कों पर घूमते हुए नजर आते थे । हॉस्टल में रहने वाले ईश्वर शरण सिंहल उन गिने-चुने छात्रों में से थे जिन्हें खादी प्रिय थी और जिन्होंने खादी-व्रत को जीवन में धारण किया हुआ था । आपने स्वतंत्रता आंदोलन के मूल्यों को आस्था के साथ अपने जीवन में अपनाया था ,लेकिन आप की पैनी निगाहों ने उन प्रवृत्तियों को भी देखा और परखा जो आजादी के आंदोलन के दौर में भी नकली लबादे ओढ़कर शीर्ष पर पहुंचने के लिए बेचैन थीं। अपने एक संस्मरण में आपने लिखा कि जब गांधी जी इलाहाबाद विश्वविद्यालय में पधारे तो उनके पास एक ऐसा छात्र खादी के वस्त्र मांगने के लिए आ गया जिसने जीवन में कभी खादी नहीं पहनी थी ,कभी गाँधीवाद का विचार लेकर नहीं चला था लेकिन अब जब गांधीजी विश्वविद्यालय में आ रहे थे तब उनके निकट पहुंचने का उसका स्वार्थ इतना हावी हो गया था कि उसने ईश्वर शरण सिंहल से उनका खादी का कुर्ता – पाजामा मांगने तक का आग्रह कर डाला । ईश्वर शरण सिंघल ने उसको समझाया कि मैं दुबला पतला लड़का हूं और तुम इतने मोटे ताजे हो ? मेरे कपड़े तुम्हें कैसे आएंगे ? बात उस लड़के की समझ में आ गई और फिर उसने ईश्वर शरण सिंहल को साथ ले जाकर खादी का कपड़ा खरीदा और आनन-फानन में खादी का कुर्ता पाजामा सिलवाया । जब गांधी जी विश्वविद्यालय में पधारे तो प्रोफेसर ईश्वर शरण सिंहल उस समय को याद करते हुए लिखते हैं कि वह ढोंगी महाशय भीड़ में सबसे आगे इतने जोरदार तरीके से नारे लगा रहे थे कि मानो देश को आजाद कराने का ठेका उन्होंने ही ले रखा हो। इस प्रकार के अनुभव कड़वे जरूर होते हैं लेकिन एक कहानीकार को इन्हीं प्रकार के कड़वे अनुभवों से लेखन कीहार्ड मिलती है। प्रोफ़ेसर साहब ने अपने कथा-साहित्य में जो कुछ समाज में उन्होंने देखा ,उसको कलात्मकता के साथ परोसा। पाठकों ने उसके स्वाद को सराहा ,यह एक बड़ी उपलब्धि थी।
जीवन के अंतिम क्षणों तक प्रोफेसर ईश्वर शरण सिंहल का लेखन -कार्य अविराम गति से चलता रहा । 2009 में आपकी पुस्तक “अनुभूतियाँ” प्रकाशित हुई तो 2010 में “उजाले की ओर” पुस्तक प्रकाशित हुई । दोनों पुस्तकें जहाँ एक ओर पोते – पोती से आपका पत्रों के माध्यम से संवाद है ,वहीं दूसरी ओर यह आप की आत्मकथा भी है। पहली पुस्तक 2009 में “अनुभूतियाँ” प्रकाशित हुई थी जिसमें आपने अपनी पोती डॉक्टर अनुभूति को कुछ पत्र लिखे। इन पत्रों के बहाने लेखक ने अपनी बाल्यावस्था में ग्रामीण जीवन का चित्र खींचा है, दुनियादारी की शिक्षाएँ लोगों को दी हैं ,किस प्रकार से घर और परिवार में जिम्मेदारी के साथ काम करते हुए एक अच्छे नागरिक के तौर पर हम स्वयं को स्थापित कर सकते हैं, इन सब बातों की शिक्षाएँ अनुभूतियाँ पुस्तक में हम पाते हैं। पुस्तक के आंतरिक कवर पृष्ठ पर पोती डॉक्टर अनुभूति सिंघल के साथ बाबा प्रोफ़ेसर ईश्वर शरण सिंहल का चित्र है जो इसे और भी मूल्यवान बना रहा है। प्रोफेसर ईश्वर शरण सिंहल के एक पोती के साथ-साथ एक पोता डॉक्टर मानस सिंघल भी है । बच्चों की अपने बाबा से प्रेमवश अद्भुत माँगें होती हैं। जब पोती पर आपने पुस्तक लिखी तो पोते ने बाबा से कहा आपने बहन पर पुस्तक लिख ली ,,अब मुझ पर भी एक किताब लिखिए। मांग विचित्र थी । किताब लिखना कोई आसान काम नहीं होता । 2009 में जब प्रोफेसर ईश्वर शरण सिंहल ने किताब लिखी तब उनकी आयु 92 वर्ष की थी । लेकिन उन्होंने अपनी अदम्य लेखकीय क्षमता का परिचय देते हुए 2010 में उजाले की ओर पुस्तक अपने पोते डॉक्टर मानस सिंहल के साथ आंतरिक कवर पर चित्र छपवाकर साहित्य जगत को भेंट कर दी । पत्र शैली में भारत और विश्व की इतिहास की जो समझ “उजाले की ओर” पुस्तक के माध्यम से प्रदान की गई है ,उसका मुकाबला शायद ही कहीं मिलेगा । जीवन के पथ पर दया ,सेवा, परोपकार आदि जीवन मूल्यों को आत्मसात करते हुए आगे बढ़ना ही मनुष्य जीवन का वास्तविक ध्येय है इस विचार को उजाले की ओर के पत्रों में भली प्रकार से समझाया गया है । एक अच्छा मनुष्य किस प्रकार से बना जा सकता है तथा व्यक्ति संसार में रहकर किस प्रकार से अजातशत्रु के समान सबका प्रिय बन सकता है इसका बोध पुस्तक में किया गया है । पुस्तक जहां बच्चों के लिए उपयोगी है, वहीं बड़ों के लिए भी इसका उपयोग कम नहीं है ।
प्रोफेसर ईश्वर शरण सिंहल 1939 में अपनी पढ़ाई पूरी करके इलाहाबाद विश्वविद्यालय से जब अपने गृह नगर रामपुर वापस आए तब आपकी मुलाकात रियासत के राजकवि श्री राधा मोहन चतुर्वेदी से हुई। प्रकृति हमें अपने मनोनुकूल व्यक्तियों से मिलाती है और जिस पथ पर हमारा चलना तय होता है ,नियति हमें उसके अनुरूप वातावरण उपलब्ध कराती है । यह श्री राधा मोहन चतुर्वेदी रियासत के पुराने राजकवि श्री बलदेव दास चौबे के वंशज थे । नवाब कल्बे अली खाँ ने 1873 ईसवी में श्री बलदेव दास चौबे की पुस्तक “नीति प्रकाश” को प्रकाशित कराया था । आग्रह करके फारसी भाषा के प्रसिद्ध कवि शेख सादी की काव्य कृति “करीमा” का हिंदी भाषा में अनुवाद श्री चौबे ने किया था । रामपुर रियासत में हिंदी के संरक्षण और संवर्धन की इस परंपरा के साथ नवयुवक ईश्वर शरण सिंघल का तालमेल खूब अच्छा रहा । आपने “साहित्य गोष्ठी” नामक मंच रामपुर में कायम किया । इसके साथ न केवल श्री राधा मोहन चतुर्वेदी अपितु सर्व श्री कल्याण कुमार जैन शशि और प्रोफेसर शिवादत्त द्विवेदी जी भी गहराई के साथ जुड़े । रामपुर विचार गोष्ठियों का गढ़ बन गया । कवि सम्मेलनों से इस संस्था के द्वारा जनता को जोड़ा जाने लगा । काव्य की पताका पहरने लगी।
इसी दौरान दूसरा कार्य प्रोफेसर ईश्वर शरण सिंघल ने आचार्य कैलाश चंद्र बृहस्पति को साथ लेकर ज्ञान मंदिर को साहित्य का तीर्थ बनाने का किया । नवयुवक आचार्य बृहस्पति का युवक ईश्वर शरण सिंघल के साथ तालमेल बहुत अच्छा बैठा । ज्ञान मंदिर गंभीर पुस्तकों के अध्ययन का केंद्र बन गया। देश भक्ति की भावनाओं को जागृत करने वाली पुस्तकें ज्ञान मंदिर में मँगाई जाने लगीं। काव्य गोष्ठियाँ तथा राष्ट्रीयता के भावों को आगे बढ़ाने वाले कार्यक्रम ज्ञान मंदिर के बैनर तले खूब आयोजित हुए ।
इसी दौरान आजीविका के महत्वपूर्ण कार्य को दृष्टि में रखते हुए नवयुवक ईश्वर शरण सिंहल ने अध्यापन के कार्य को अपनी आजीविका के रूप में स्वीकार किया। उस समय रामपुर में इंटर की कक्षाओं का संचालन शुरुआती दौर में था। ईश्वर शरण सिंहल को अध्ययन के अनुकूल अध्यापन कार्य मिल जाने से अपार आत्म संतोष का अनुभव हुआ। विद्यार्थियों को पूरे मन से उन्होंने मनोविज्ञान की शिक्षा देने का काम अपने हाथ में ले लिया । प्रवक्ता के तौर पर विद्यालय में अध्यापन कार्य करते समय जो शैली उन्होंने कक्षा में निर्मित की ,उसकी छाप सारा जीवन उनकी भाषण-शैली पर विद्यमान रही । उन्होंने कभी किसी नेता की तरह नारे नहीं लगाए ,जोरदार आवाज में श्रोताओं को अपनी गिरफ्त में लेने की कोशिश नहीं की । वह क्षणिक उत्तेजना पैदा करके वाहवाही प्राप्त करने वाले वक्ता नहीं थे। वह तो एक ऐसे शिक्षक थे जो श्रोताओं को अपनी बात शांत भाव से समझाने में विश्वास करते थे। दिल से उनकी आवाज निकलती थी और श्रोताओं के हृदयों में बसती चली जाती थी । एक पिता, अभिभावक अथवा घर के बुजुर्ग के समान उन्होंने जीवन के अंतिम दशकों में जनसभाओं को संबोधित किया । अंतिम क्षण तक वह बिना किसी सहारे के केवल एक बेंत पकड़कर पैदल चलते थे । उनके हाथों की शक्ति न केवल कलम चलाने की दृष्टि से दुरुस्त थी बल्कि उनकी श्रवण शक्ति भी कभी कमजोर नहीं पड़ी । उनकी आँखें बिल्कुल सही थीं। आवाज में 95 – 96 वर्ष की आयु में भी वही करारापन था जो कभी शिक्षक के रूप में रिटायर होते समय रहा होगा । सबसे बढ़कर उनकी मेधा-शक्ति थी जिस पर समय के थपेड़े कोई प्रभाव नहीं डाल सके । विचार करने की उनकी उर्वरा शक्ति अंत तक बेमिसाल थी । एक शिक्षक के रूप में उन्होंने राज्य शिक्षक पुरस्कार शासन से प्राप्त किया था । यह एक बड़ी उपलब्धि होती है ।
एक जिम्मेदार नागरिक के तौर पर उन्होंने स्वाभाविक था कि धर्म की भूमिका पर विचार किया । भारत और दुनिया में सब जगह धर्म ने मनुष्य-जीवन पर सबसे ज्यादा प्रभाव डाला है। प्रोफेसर साहब कहते हैं :-
” विश्व में ऐसा कोई धर्म नहीं जिसने हिंसा को त्याज्य कहकर अहिंसक जीवन जीने का संदेश न दिया हो । परस्पर भाईचारा ,प्रेम ,सहानुभूति ,सहनशीलता ,दया और त्यागमय जीवन की भावनाओं से प्रत्येक धर्म भरपूर है । किंतु ऐसा तब संभव है जब व्यक्ति में दृढ़ संकल्प शक्ति और नैतिक गठन हो जाता है । इस दृष्टि से चारित्रिक विकास ही धर्म का प्रमुख उद्देश्य है । महात्मा गांधी ने जब कभी धर्म की बात कही है उनका तात्पर्य इसी धर्म से रहा है। किंतु धर्म का एक रूप और भी है । अलग-अलग दैवी शक्तियों और उनकी अलग-अलग उपासना-विधियों का जन्म हुआ। इबादत या पूजा अर्चना के ढंग बदले तो साथ ही साथ वेशभूषा बदली ,खानपान के तरीके बदले ,रीति रिवाज और आस्थाएँ बदलीं, अलग धार्मिक ग्रंथों की रचनाएं हुईं तथा अपने-अपने धार्मिक दर्शन की उत्पत्ति हुई । जिस प्रकार की उपासना विधि को एक वर्ग ने बनाया ,वह एक प्रकार का धार्मिक संप्रदाय बन गया और दूसरी उपासना-विधि के मानने वाले किसी दूसरे संप्रदाय के रूप में संगठित हो गए । इस प्रकार विभिन्न धार्मिक संप्रदायों की उपज होती चली गई। धर्म के इन दोनों रूपों को मिलाने का भी प्रयास किया गया है किंतु इस संबंध में सच्चाई यह है कि लोग धर्म में नैतिकता को मानते तो हैं और उसका बखान भी बहुत जोर – शोर से करते हैं किंतु उनकी यह स्वीकारोक्ति केवल शाब्दिक होती है। वास्तव में उनके लिए केवल पूजा उपासना ही धर्म के मार्ग पर चलने का सबसे सरल और निष्कंटक तरीका है ।”
प्रोफेसर साहब के उपरोक्त धर्म – विषयक विचार अगर देखा जाए तो अपने आप में कुछ कड़वे जरूर हैं लेकिन इनमें गहरी सच्चाई भरी हुई है । हमने धर्म के वाह्य रूप को अधिक महत्व दिया हुआ है और धर्म धारण करना उतना ही सरल कार्य बन गया है ,जितना किसी अवसरवादी नेता के लिए किसी दल विशेष की टोपी को पहनकर जिंदाबाद के नारे लगाना होता है । धर्म वास्तव में उस साधना में निवास करता है जो सत्य ,अहिंसा ,दया ,सेवा और अपरिग्रह आदि उच्च नैतिक मूल्यों के रूप में धारण करने का आग्रह कर के किया जाता है । यह कार्य सचमुच बड़ा कठिन होता है । इसके लिए व्यक्ति को प्रलोभनों से ऊपर उठना होता है ,किसी का छीन कर खाने से बचना पड़ता है ,अवैध रूप से धन अर्जित करके धनवान बनने के लोभों पर विजय प्राप्त करनी होती है और जीवन में तड़क-भड़क तथा दिखावे की प्रवृत्ति का उन्मूलन करना पड़ता है । इस साधना को हर कोई नहीं कर पाता इसलिए धर्म का यह आंतरिक रुप दबा – ढका ही रह जाता है । अगर प्रोफेसर साहब के विचारों के अनुरूप समाज का निर्माण हो तो न हमें धार्मिक संकीर्णता के दर्शन होंगे ,न सांप्रदायिक हिंसा देखने को मिलेगी और ना ही मनुष्य और मनुष्य के बीच विभेद को बढ़ाने वाली जीवन पद्धति समाज में प्रबल हो सकेगी । वसुधा एक कुटुंब बन जाएगी और मनुष्य उस परिवार का एक सदस्य कहलाएगा।
असाधारण प्रतिभा के धनी साहित्यकार प्रोफेसर ईश्वर शरण सिंघल 16 सितंबर 1917 को रामपुर के एक जमीदार परिवार में जन्मे थे । जमीदारी का अर्थ निरंकुश शासन प्रणाली से लिया जाता है लेकिन प्रोफेसर साहब में बाल्यावस्था से ही संवेदनशीलता का गुण विद्यमान था। मनुष्यता का भाव उनमें कूट-कूट कर भरा था । हृदय कोमल था, संवेदनशील था। वह लोगों पर शासन की चाबुक बरसाने के लिए नहीं जन्मे थे ,हृदयोंयों को जीतना ही उन्हें अभीष्ट था । 29 मार्च 2014 को प्रोफ़ेसर साहब ने 97 वर्ष पूर्ण कर के अपने नश्वर शरीर का त्याग कर दिया । किंतु यह मृत्यु नहीं थी । साहित्यकार अपनी कहानियों, उपन्यासों, विचारशील लेखों तथा कविताओं के माध्यम से सदा अमर रहते हैं । मृत्यु उनका स्पर्श नहीं कर पाती । प्रोफ़ेसर ईश्वर शरण सिंहल अमर हैं।
जिंदा जिनकी लेखनी ,साहित्यिक संसार
मरते कब जो दे गए ,शब्दों को आकार
“””””””””””””””””””””””””””””””””””””””””””””””
लेखक रवि प्रकाश ,बाजार सर्राफा ,रामपुर

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