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25 Jul 2021 · 29 min read

प्रेरणा ( कविताएँ 1 से 25 )

1-मौलिक धरा पर-प्रकृति, जल,वायु,सूर्य,मिट्टि का
——————————————
इस संसार की मौलिक धरा पर,
सूरज,जल,वायु,मिट्टी,सौर्यका।
प्रकृति हो जाती मौलिक विधा में,
नदी-पर्वत बनते आवर्तिक झल्लिका।

जब भी कल्पना सजीवित होती,
द्रश्य उतार-चढ़ाव में चला करते।
जब कोई खुद को स्यमं देखता,
चिपके बिना मौलिक विधा में बहते।

धरा-आशमां से जितनी होती ममता,
प्यारी म्रदु धारा खुद संचालित होती।
बहुत सी क्रतियां बिना भाव चलकर,
दिन-रात संग में हमेशा बहा करती।

प्रक्रति में आकर मौसम में जाकर,
समय के संग बिना सोंच चला करते।
जिसमें द्रढ-विश्वास हो जितना,
निश्चित उन भावों में सुनिश्चित चलते।

मौलिक सोंच से भावित क्रत्य कर,
अपनी मौलिक चाह से मन में समाते।
शुरू से बचपन,जवानी, बुढापा रहा,
तभी वे संसार में मुहब्बत करके जीते।

परम शक्ति होती अर्पित किसी पर,
शक्ति धांरणा अद्वैत बनकर रहती।
समय के संग सभी भाव उससे बहकर,
भाव विकार कुछ उसमें नहीं दिखते।

चाह मोहब्बत की कैसी रही वेदना,
कर्मो के संग से निपटते वह रहते।
अपनी चाह को चाहा करो सौम्य बन,
निश्चित धारणां कर स्यमं रहे दिखते।

हे मेरे !परवर दिगार तुम,
शक्ति-कर्मठता सब मुझे दे दो।
तीक्ष्ण शक्ति को दम से चलाकर,
भाव-भावना सब मुझमें भर दो।

मौलिक विधा में मैं रहा जीवित,
इस संसार में मुझे सुंदर कर दो।
भाव-भावना का जितना रहा वर्धन,
निश्छल विधा को पूरा मुझमें कर दो।

बहुत कार्य हेतु शेष अभी जीवन,
कार्य समझकर स्यमं रहे बढ़ाते।
सोंच समझ में छूट गया सब कुछ,
पूर्व से खाली अब ब्याकुल दिखते।

किससे किसको प्रेम अभी है,
यह शरीर भावों का बन्धन।
यदि लगाव से विरत रहे तुम,
कार्यों में होगा अति अनुबन्धन।

हे मेरे! निःस्वार्थ शिरोमणि,
मुझमें परम शक्ति को भर दो।
ध्रष्ट धांरणा प्रकृति को दे दो,
मूल विश्वास को अपने में कर लो।

2– बिना विधा की है संसारिकता
————————————-
यह संसार बनाया जिसने,
बिना काम के स्यमं चाह रखता।
कथा ब्यथा सब देता प्रकृति से,
चाह पूरी रखकर प्रेम भाव करता।

आज यहां पर जो कोई जन्मा,
भाव ब्यवस्थित कर संसारिक बनता।
रोंक न पाया किसी विधा को,
बोल-चाल करके विधा दूर करते।

कौन सी व्रक्ति में प्यार को रखा,
आंखों के आंशू गति से रहे बहते।
देख के दर्द को समझ न पाये,
उमड़ी हुई चाह में कैसे पहुंचते।

मानव क्रति संसारिक बनकर,
पेंड,पौधे नदी नाले सभी रहे देखते।
इनमें रही संसारिक धारणां,
विधा को मानकर काम रहे करते।

अपने सब कामों में रो-गा करके,
सुख-दुख-करुणां को रहे बांटते।
कभी कोई बातें कहकर चिल्लाते,
मानव अन्तस्थल तक नहीं पहुंचते।

भौतिक मोह में ज्यादा फंसकर,
मौलिक दिमाग़ को नहीं लगा पाते।
जीवन में विधि ऐसी क्रति करके,
बात बिना समझे कार्य रहे करते।

मन शरीर की गति को ऐसी करके,
. समयानुसार ब्यवस्थित हो जाते।
ऐसी विधा को मौलिक करके,
मौलिक उपभोग का प्रयास रहे करते।

. अपने और दूसरों के हित हेतु,
जोड-घटाकर निर्णय रहे करते।
जिस विचार से रहे मन सुद्रढ,
दुख-सुख,कर्म-धर्म सब रहे दिखते।

हम जैसे रहते समाज में,
अपनों को छोडकर गैरों में रंभते।
प्रक्रति-मूल भावों को विधित कर,
पूरे समय रुककर अनुसंशा रहे करते।

जाल-जंजाल की विधा समझकर,
अपने में बंधकर तडपते खुद रहते।
. नहीं कभी समझे स्यमं निर्णय को,
. कर्म-ब्यवस्था को स्यम रहे करते।

संसारिक औ प्रकृति की मोह-माया,
कर्म-ब्यवस्था को बन्धन से सोंचते।
सीधी चीज को समझ नहीं पाते,
मानव विकारों में स्यम रहे बहते।

लगभग सभी काम दिखते रहे अच्छे,
अहम भाव रख स्यम रहे चलते।
पूर्ण कार्य नष्ट हुए अपने जीवन में,
तब मानव जीवन में भाव नहीं रखते।

कैसे कौन प्रकृति का जीवन,
काम-धाम कार्य.नियम से करते।
रो-गाकर इतिहास बनाकर,
अपने को छोंड़-द्वेष अन्य पर रखते।

ज्ञान अज्ञान सभी रहे समझते,
सब भावों को ढ़ग से देखते।
मानव अभिब्यक्ति की सजीव व्रत्तियां,
संचालित होकर संयमी बनकर रहते।

3 गाली गलौज द्वारा गीत उपहार—-
—————————————-
अपने एवं प्रतिपक्ष शादी वालों को,
दोनों की विभाएं गीत गाकर दर्शाते हैं।
नर नारी जीवन के ब्याह परिक्रमण में,
क्रिया संचालन हेतु विविध क्रिया बताते।

प्रारंभिक स्थिति में आकर्षक गाली विधा,
गाली उच्छेदित कर प्रफुल्लितभाव दिखाते
प्रारंभिक स्थिति में गालियों के गान सुना,
जीवन संस्करणमेंअभिनन्दनविधा दिखाते

शादी में बराती भोज्य के उपहार हेतु,
नारी पक्ष आकर्षक गीत-गालियां सुनाती।
सम्पूर्णता से जब नहीं मिली गालियां,
नर पक्ष रूपया दे गानों हेतु कहते।

शादी स्यमंवर में उक्त भावों की स्थित में,
श्रेष्ठ हेतु नर प्रबल गाली खाकर खुश होते।
औपचारिक विधा से वह खूब गलियां,
संभ्रांत स्त्रियां लड़के पक्ष को सुनाती।

प्रफुल्लित भावों में,दूल्हे परिवार मित्रों को,
संस्कृतिक भावों में खूब ढ़ग से सुनाती।
संस्करण में भावों को अभिब्यक्ति कर,
परिवारिक व्रतिका मौलिकता करती।

शादी स्वयंवर में उक्त विविध स्थित,
मौलिकता हेतु नारी पक्ष है दिखाती।
उक्त विधा हेतु परिवेक्ष दिखाकर,
औपचारिक बनकर खूब गलियाती।

सम्भ्रान्त स्त्रियां आपेक्षित विधियां कर,
आभूषित गालियां से वर पक्ष खुश करती।
दूल्हे,परिवार,उनके सम्मानित मित्रों को,
संस्कृतिक विधाओं से सबको रही सुनाती

सम्भ्रान्त आक्षेपित गांलियां देकर,
अति प्रसन्न भावों में खूब व्रत्तियां करते।
वर पक्ष प्रभावी इनाम उन महिलाओं को,
जीवन भावों द्वारा खुशी भावों से देते।

सामान्य जीवन में उक्त गीतो से,
अति प्रेम भावों से वे संचालित होते।
वर पक्ष सामान्य सोंच बनाकर,
सद्भाविक भाव बनाकर प्रसन्न होते।

भाव परिवर्तित कर उक्त स्थिति में,
यदि कोई गाली जैसे शब्द निकालें।
तो समझो उस दुरूह.स्थिति में,
दुश्जयी बन आक्रामक बन लड़ जाते।

दोनों स्थितियों में भाव विचारों का,
गाली जैसा कैसा रहता अनुबन्धित।
प्यार दुष्टता सब जगह होती अवश्य,
किये भावों को किन ढ़गों से देखते।

जिसकी जैसी बनती भावना,
भाव विचारों से दर्शन वैसे होते।
उक्त स्थित विधा को भाव समझकर,
वैचारिक संतुलित भाव ढ़ग से झेलते।

उक्त स्थितियों को मौलिक समझकर,
भावों को समझकर संतुलित कर देते।
प्यार-क्रोध मे कितनी प्रबल उर्जा,
रहती अटूटता मौलिक विधा से करते।

यही सब होते भाव मानव जीवन में,
सभी समझकर दुख सुख में हैं करते।
अन्य विधाओं की स्थित हटाकर,
अन्यत्र चीजों को वह नहीं देखते।

ज्ञान-ध्यान से सब भावों को,
उसी प्रकार की गतियां वह करते।
कर्म-धर्म सभी युक्ति मिलाकर,
समझ के स्यमं वह क्रत्य से करते।

कोई नहीं उसे कभी कुछ कहता,
अनैतिक समझकर जीवन में चलता।
पूरे जीवन में उक्त विधियां रखके,
मानसिक संतुलि कर जीवन बढ़ाता।

ऐसी विवेचना वह हमेशा करके,
सभी मानव जीवन में स्यमं रहे चलते।
अपने नहीं केवल शारीरिक अंगों के,
नामों को कहकर दुस्क्रति रहे करते।

सामाजिक द्रष्टित नर-नारी के अंग,
समान स्वरूप में वांछित मौलिक होते।
लोग केवल अंगों के नाम को लेकर,
बहुत विवाद कर दुश्क्रति पैदा करते।

गाली विधा की ऐसी बनी पौराणिकता,
संस्कारिक बनकर संचालित स्यमं बनते।
सामाजिक विधाओं को सोंच समझकर,
सामाजिकता में वह कब क्या करते।

सहज और विज्ञान अभिकार्य का,
जब होता मौलिक स्वरुप से करते।
सौम्य सहज से वह सामान्य होकर,
सरल जैसे बनकर स्यमं रहे चलते।

शादी क्रिया सम्पन्न विधा होने के बाद
लड़के के घर लड़की पत्नी बनके जाती।
भाव भावना की रही अभिब्यक्तियां,
जीवन उद्भोग हेतु नर नारी विधा करती।

बिना किसी सोंच विचार के,
जब कोई उससे रहा कहता।
तब उसे संयम असंयम करके,
बहुत दूर जाकर वह रहा चलता।

सहज सरलता को विवेक से कर,
वह संजीवता से सजीव बन जाते।
तब वह स्थिति में सौम्यता करके,
वही प्रचन्ड तथा सौम्य बन जाते।

जीवात्मा की जीव विधा से,
. भावों में रहकर आगे रहे बढ़ते।
सौम्य विधा को धैर्यशाली समझ,
उसे बनाकर शिष्ट सौम्य बनाते।

फिर भी यदि उक्त क्षमता नहीं है,
तब मानव रुप में अमानव बन जीते।
दिखता समाज जो मेला बाजार है,
विविध क्रिया करके सभी इसमें जीते।

4. “भाव अकुलाहट विधा”
————————-
आज दिख रही बहुत अकुलाहट,
नहीं दिखी अन्य सौम्य की आहट।
बीता समय जो सब वहां गुजरा,
फिर नहीं होती तब काम की चाहत।

यह जमीन कब तक शुष्क रहेगी,
किलिष्ट भाव कर उन्नत करेगी।
ऐसी जमीं में संयोजित करें जीवन,
अन्तर्जगत भाव अन्तस्तल में रहेगी।

कुछ क्षण बिताये सौम्य-श्रद्धा पीकर,
प्रकृति का खाना-पीना समुचित दिखा।
उक्त सभी चीजों का पता खुद रखके,
भाव आचरण से राहत चाव किये हैं।

बहुत समय से उसमें समभाव दिखे,
. शुध्द अशुद्ध सामाजिक से बने रहे।
नहीं कोई उसमें रही सौम्य स्थिरता,
निश्चित विभा से सब बातें समझते रहे।

अभी यहां पर दिखे बहुत धावक,
उसी आधार पर विचार भाव हमने किये।
सोंच समझकर वैचारिक विधा कर,
उक्त को समझो क्या बनने में सौम्य रहे।

पूरी धरा से ऊपर रहा आंचल,
जिनसे मिल करके हमने क्या किये।
सोंच समझकर सभी को गुजरना है,
सबमें विश्राम स्थल निश्चित निधा है।

कार्य प्रवत्ति होती सभी मानवों में,
समय गुजरना जो लगता रहा निश्चित।
अन्दर संयमित प्रवत्ति से भिन्नता,
धांरणा ब्यवस्थित कर स्थित में रहे हैं।

इस दुनियां में रात-दिन चलकर,
सोंच-समझ अनजान बन चले हैं।
कौन सी घटना कैसी रही विधि में,
कल्पनाएं रख करके रूप बनाते रहे।

दुनियां को हमने खूब ढ़ग से देखा,
कितने कैसे बनकर उसमें सब दिखे।
बहुत जगह चलकर उस जगह पहुंचे,
तब भी कुछ पता नहीं,आगे क्या करेंगें।

हम या हमारे सभी बने सम्बंधी,
रिश्ता नाता बनाकर हंस-रोकर चले।
सुनसान जीवन में सभी साथ रहे हैं,
नियम ब्यवस्थित करके सबसे जुड़े।

प्रकृति विधा का कैसा रहा संसाधन,
नैतिकता रख करके खुदा-ईश जोड़े।
प्रेम भावना सब प्रक्रति को देकर,
सभी को लगाकर जीवन में उन्हे जोडे़।

5– “कहां पे जन्मा खाना पानी दुनियां से”
——————————————
कहां पे जन्में इस दुनियां में,
मिट्टी-पानी वायु संग प्रकृति सूर्यता ली।
भाव विचारों की रही भरावट,
क्रिया कलापों से विद्यता की।

सब मौसम में जीने को सीखा,
प्यार दर्द अनुराग सब लिया।
बहुत लोग उपहास रहे करते,
बिना सोंच के प्रेम भावों में हंसे।

कोई वहां आया लेकर जलवा,
बहुत लोग परिहास में रहे।
गति में रुककर सोंचा कभी नहीं,
क्रतियों में अनुयोजित सह नहीं पाये।

परिवेशों से रहकर बदलते,
खुद से उसको समझाते रहे।
कैसी रही धारणां उसकी,
समझा कुछ नहीं हम भगाते रहे।

सभी कर्म अभिचार से करके,
ऊंचे वह उठ गये बलवान बनकर।
तीर-तलवार को हाथ में लेकर
हिम्मत-हौसले भाव साथ में रखे रहे।

कितना समय बचा जीवन में,
आज जैसे चला कल सम्भव नहीं है।
बीते पल के भौतिक रूप को,
उक्त कार्य परिवर्तित किये हैं।

इस जीवन की विधिक क्रियाएं,
वक्त परिस्थिति सभी रहे बदलते।
कहीं किसी का लाभ दिखाकर,
उसमे तभी असमन्जस बनाते।

कैसे बाजार और कैसे रहे मेले,
हम मिल-घूमकर रहे समझते।
कैसा सामर्थन कैसी होगी हिम्मत,
स्यमं को दिखाकर रात-दिन बिताते।

ज्ञान सामर्थ्य की कितनी रही स्थित,
उसे समझ कर दशायें सब भरते।
आवश्यक जरुरत ढंग से समझकर,
पाने का चाह हेतु विधिक रहे करते।

ज्ञान-ध्यान में बहुत कमियां होती,
बहुत समझकर बेढंग कार्य करते।
अन्तर ह्रदय संयमित करके,
देखने से भौतिक बहुत दूर होते।

कैसी क्रति-वृत्ति जो रही दिखती,
अच्छी-बुरी सब चीजें समझ में आयी।
यदि आवश्यक काम रहा उसका,
ब्रहद विचार से वह लग जाते।

जिसने यह संसार बनाया,
कारण घटनायें सब रही उसकी।
परमशक्ति परमात्म जैसे होता,
बोझ लादकर बिन भाव जीते।

प्रक्रति में कैसा क्या रहस्य है,
उसको समझकर स्यमं रहे चलते।
हम मानव बेभाव प्रवत्ति के,
बोल चाल कर राहें रहे देखते।

6 “कैसी मौसमी जीवन फुहार”
———————————-
यह मौसम फुहार का ज्ञापन,
कब तक ऐसे रंग करेंगा।
जाडा-गर्मी भाव रहे अनुक्रम,
मौसम कब सामान्य जैसे होगा।

कैसे दिखती रही सब ऋतियां,
कब तक ऐसे राव रंग रहेगा।
मेरा दिल तो बहुत कठिन है,
कथा-ब्यथा भाव वह कैसे चलेगा।

बहुत समय से सोंच रहा हूं,
भाव विचार ऐसे क्यों होते।
ऐसे सोंच की क्यों आती धारणां,
किसी से न पूंछे तो नहीं बता पाते।

बहुत समय से सोंच रहा हूं,
यह विचार ऐसे क्यों बन जाते।
ब्यापक सोंचें उद्रित विधा से,
सामान्य जीवन वह पौरुष में रहते।

कभी रहे सपने सामाजिक,
सब वैसे भाव में जीवन भर चलते।
जिसमें कुछ क्रतियां रही पुरानी,
सोंच समझने से आधार में मिलते।

ऐसी बहुत पुरानी बातें,
बिन आधार के राह दिखा देती।
बहुत समझने बाद बनती नयी स्थित,
सोंच समझ कर तभी भाव.दिखाते।

यदि मुझमें द्रढता है क्रति की,
ऊंचे-नीचें भावों की संगति होती।
कभी कोई उस राह में चलकर,
नयी स्थित की राह रहे बताते।

बचपन के सब भाव सोंच कर,
. यौवन से बृद्धा तक अनियंत्रित चलते।
सीखा नहीं बचपन में राह में चलना,
इज्ज़त बेइज्जती साथ रहती नहीं।

विविध जगह हम घूमा करते,
श्रद्धा विश्वास लेकर रहे भटकते।
प्रेम ब्यवस्था सबको साथ रख,
सबको देख अपने पास बुलाते।

सहज भाव की नैतिक क्षमता,
उसकी द्रढता कठोर जैसी लगती।
द्रष्ट विचारों से छूट जाता जीवन,
चिपटे नहीं उसमें सब भावों में रहते।

7. ” मौलिक भावों बिना आपस में तकरार”
——————————————-
आज लड़ रहे उन लोगों से,
चोर उचक्के सभी हैं उसमें।
सब कुछ लेकर नष्ट हुए हैं,
बचा न कुछ बेहाल वहां सब।

प्रतिभा और प्रतिष्ठा पाकर,
तभी आज इन्सान हुए।
चारों ओर रही चिल्लाहट,
रूतबा-एहसान लोग बकते रहे।

सब क्रतियों को ढ़ग से करके,
भाव विचार परिपूर्ण हुए।
दिखी न कोई प्रतिभा प्रतिष्ठा,
उज्जवल भाव में सभी दिखे।

भौतिक क्रतियां और वृत्तियां,
स्वच्छ ह्रदय से चमकते रहे।
होता जब सम्मान भाव का,
आत्मविश्वास तभी प्रबल हुये।

भौतिक क्रतियां और वृत्तियां,
खाने-सोने-जीने से रहे ब्यहतर।
सब पल बहुत परिवर्तित दिखे,
इसे समझ लो सोंच में करके।

कौन है अपना-कौन पराया,
नियम ब्यवस्था सभी रहे करते।
उज्जवल बन प्रतिभाशाली होकर,
सोंच में फिर वह जीवित हुए।

जिस समाज में यदि कोई रहता,
नियम ब्यवस्था से ठीक रहे करते।
उसी में अपने सभी काम करके,
समय में रहकर काम पूरा करते।

इस समाज का कोष भरा है,
करके ब्यवस्था वह कैसे बढ़ते।
धन सम्पदा रहा समाज का स्तर,
उसको पाकर अलग नहीं हुए।

बहुत चल हैं इस दुनियां में,
भाव विचारो से कार्य रहे करते।
भाव विचारों में नहीं रही द्रढता,
ऐसा सब करके समय बिता दिये।

8. संसारिक घटनाओं से दुख सुख के भाव”
———————————————-
रोना गाना और अंतर्पीड़ा,
. भावों की चोरी-बेईमानी से होती।
मुंह में आंशू नहीं डाल कहते,
राष्ट्र बडा यह भाव रहे कहते।

. क्या होना था कैसे हो गया,
सब कुछ हो गया विधा को सहके।
उन भावों में अपेक्षा बनी निष्ठा,
सब विचार को नियम से रहे करते।

बहुत मिले संन्यासी जोशी,
. कुटिया मंदिर और जनवासे।
भाव ब्यथा कुछ समझ न पाये,
आंशू निकले चित्रण करें न्यासे।

ऐसे विचार के भाव कहां हैं,
सब गतियों में कैसे सज जाते।
अब तक कुछ भी समझ नहीं पाये,
कौन सी क्रति को खुद रहे करते।

बहुत मिले ज्ञानी स्वाभिमानी,
समय बिताकर मिलकर रहे करतें।
हम सब लोगों ने चाहा दिल से,
फिर भी तमन्ना आम किये मन से।

कुछ नहीं सीखा इस दुनियां से,
बहुत कुछ खाकर चाहते रहे हैं।
हिम्मत-हौसले को मुद्रित करके,
बीमारी सोंचकर ढलते रहे हैं।

9. “संसारिकता छोड़ प्रेम-स्नेह भाव दो”
——————————————
यह शरीर किसी को दे दो,
… मुझको केवल प्यार भाव दो।
फिर तुम आज दिख रहे कैसे,
मुझे साधना विधा दिखा दो।

कितनी सुन्दर रही धारणां,
सुन्दरता को दिल में लगा दो।
बहुत रही लोगों में चाहत,
मैं तो यहां मुझे भावना दे दो।

कमी बहुत है चाह तुम्हारी,
बिना भाव के स्यम रहे चलते।
कैसी सुन्दर रही धांरणा,
सोंच विचार कर विधा रहे सहते।

मन विचार में बहुत होती गतियाँ
श्रद्धा-समर्पण से ब्यवस्थित चलती।
केवल विधा देखो बनेगी ब्यवस्था,
सब कुछ करने की हिम्मत आ जाती।

टेडी़-मेडी़ सब गलियों में,
बिना भाव अंतर्द्रष्टि विधा करते।
टूटे-फाटे निर्धन घर में,
प्यार में रहकर विधा से करते।

चलतें रहे द्रष्टित जीवन में,
कुछ लोगों की चौपालें दिखती।
.. कुछ कहते यहां बहुत है करना,
सोंचकर.अन्य जगह चले जाते।

इन सब चीजों को पाने में,
.. देख समझ अहलाद रहे करते।
किससे कैसी कितनी रही श्रद्धा,
खुद को समझकर अपने भाव जाते।

. खुद मे भावना स्यमं आ जाती,
कैसे उत्साह उमंग रहे रखते।
जिसके अन्दर रही विकारत,
उन्ही भाव से चेहरें रहे पाते।

परम शक्ति पर भक्ति तुम्हारी,
सुन्दर सुद्रढ़ आचरण जैसे दिखते।
उचित कार्य को अपने से करके,
बहुत उत्साह हौंसलें में रखते।

सबकी अलग तमन्ना दिखती,
.. उसको पाकर सभी है सोंचते।
उसके लिए वह स्यमं से कहते,
विद्या अभिज्ञान पौरुष रखते।

पैत्रिक सोंच रही अपने कोमों में,
नैतिक सोंचें हमेशा रखे रहते।
अच्छे कार्य में सद्विचार लगाकर,
सभी कार्य को दिल से रहे करते।
,
भौतिक और विकार की सोंचें,,
. अच्छे विचार सुदृढ़ भाव रहे रखते।
नहीं पता स्थित होगी कैसी,
भाव भावना सब रहे समझते।

अब नहीं दिखी धारणां कुछ भी,
जिसमें शारीरिक परिवर्तित होता।
कुछ समय बाद शरीर मिटेगा,
संचित भावों की विधा रहेगी।

10. “सकारात्मकता से होता आत्मविश्वास” .
————————————————-
इस पृथ्वी पर हंसकर-रोकर,
हिम्मत और हौंसला बनाये रखते।
उसको इज्जत सपने देकर,
सब कुछ मिटा कर आम हो जाते।

सोंच-विचार की चाह रही तो,
टूट-फाट कर भाव रहे करते।
कुछ भावों के भिन्न नजरिये,
नयी क्रति व्रति के गीत आ जाते।

किस्से और कहानी कैसी,
कौन नजरिया किसके संग जाती।
बहुत सुनाते बिना तान के,
..मरघट में रहकर विधा दिखाते।

बादल नहीं चांद सूरज बुजदिल,
आशा चाह प्यास की मिला कुहासा।
लोगों ने दर्द की सांसें लेकर,
सुद्रढ़ विधा की आशा रखकर।

. तब भी हमें बढ़ना अभी आगें।
सोई स्वांस को जगाना नहीं।
उसको तेज करूंगा गति से,
म्रत भावना से स्म्रति नहीं होगी।

वहां रहा क्रति-गति का जलवा,
. करके लेते स्थायित्व स्तम्भन।
सोंच विचार में स्यमं रहे उत्तेजित,
परम पिता का रहा केवल नंदन।

जिस संसार में हम सभी जीते,
मधुर कठोर कर्म बन्दन भरते।
क्रति-व्रत्ति को कौन चलाता,
भावों का लेते रहे स्तम्भन।

कितनी सुन्दर राह रही उसकी,
सोंच समझकर रहे पहुंचते।
कोई कहां पर तैरा करता,
जैसे दरिया समुद्र मं रुकती।

बहुत लोग यह सोंचा करते,
. निश्चित विधा से समय पार करेंगे।
आते जाते समय बचाकर,
ऊंच नीच आभार रहे सहते।

11. “विचार भावों से जीवन की प्रवत्तियां”
—————————————–
इस जमीन पर पैदा होकर,
.अलग में रहती सबकी स्थित।
जाति धर्म की जगह अलग होती,
कार्य-कलापों के भाव ब्यवस्थित।

कैसे हम जीते लोकतंत्र में,
कार्य अलग कर भाव रहे करते।
आर्थिक कष्ट को देकर कहते,
उस स्थिति को बनाकर चलते।

सभी लोग जीवन में आकर,
भाव विकार ले स्यम रहे करते।
फिर भी उनको रहता रहा करना,
सब चीजों को स्यमं रहे करते।

हुआ विभाजन उक्त क्रती से,
पढ़ लिख भाषण रहे बताते।
अपने और पराये रहे मन में,
जीवन पल को रहे बढाते।

मानव के इस अहम क्रत्य को,
जान-समझ कर बहुत रहे करते।
कोई किसी के पास तभी आता,
लोग समझकर दूर न भगाते।

मानव के इस अहम कृत्यको,
जान समझकर बहुत रहे करते।
कोई किसी को पास तभी लाता,
तभी समझते वह उसके भाव को।

हम मानव की इस स्थित को,
नीति अनीति रख नियमित करते।
प्रेम और अनुराग समझकर,
वैसी राहों से मन रहे भरते।

बहुत रहे सच्चे जीवन में,
प्यार में लिपटकर समय रहे खोते।
यदि उसका उद्देश्य सफल हो,
उसी समय में ज्ञान भर लेते।

.सब लोगों को पास में लाकर,
ज्ञान-विज्ञान के भाव रहे लेते।
.कैसी रही साधना खुद की,
सब कुछ छोड कर पैरों से चलते।

चलना-फिरना,सोना-जगना,
कैसी प्रवत्ति है इसे समझ लो।
समय नियत के पूर्व नहीं होता,
बने उद्देश्य को पूरा खुद कर लो।

ऐसी क्रति में हम रहे जीते,
इज्ज्त और ब्यवस्था रखकर।
.भौतिक क्रतियां स्यमं से करके,
स्यमं अध्याय प्रार्थना रहे करतें।

आज तुम्हें जाना है आगे,
नयी धारणां रचना भाव लेकर।
इस संसार को गति है समर्पित,
लो प्रथम शक्ति विचार रहे आगर।

तन की शक्ति बने संसाधान,
यह सब मिलकर दिल जोड़ देते।
जैसे हो द्रढता बहुत शक्ति की,
वैसे ही कार्य समर्पित हैं करते।

12. “जीवन विधाओं हेतु भाव संचलन”
—————————————
हंस रोकर जीवन कट जाता,
छोटे बडे-सब भाव स्यमं रहे रखते।
बहुत दिखे संसारिक नखरें,
मन विचार के भाव अलग दिखते।

समय के संग उस विधा में जाकर,
बहुत समझ कर भनक नहीं करते।
बिना विधा से ढ़ग को बढ़ाकर,
बन जाये वह परमशक्ति पहुंचते।

एकहि प्रक्रति को सब रहे देखते,
रुप रंग सब भाव अलग रहते।
क्रिया-कलाप जो सभी रहे बदलते,
सब रंगों में रहे चिपकते।

सब के जीवन की राहें निराली,
ऐश-प्रतिष्ठा-की चाहत दिखा देते।
भावों में दिखती रही दिब्यता,
कर्म नियोग को खुद अलग रखते।

नर-नारी सब रहे अब्यवस्थित,
.. राह देख कर नियम रहे बनाते।
किस स्थिति में कहां कूदना,
ढ़ंग से देखकर काम रहे करते।

बहुत परिस्थिति दिखी वहां पर,
उसी को देखकर संतुलित रहते।
सबको छोडकर यह विचार करके,
फिर भी कैसी को राह रहे बताते।

कितने मंदिर-मश्जिद देखे,
रुप कहानी इतिहास को सोंचा।
उसको पाकर नीचे धुस बैठते,
भाव-सोंचकर धारा में बहते।

किसी के पाने की रही ख्वाहिशें,
चाह में करम-धरम सभी करते।
कैसी रही तमन्ना मन की,
. कुछ नहीं पाये दिनभर चलते।

ज्ञान-ध्रष्टता जब आती है,
सभी-विचारों की गति रही चलती।
.. बहुत समझकर कैसे बन जाते,
शेष विधा पर मनन रहे करती।

मानव बंटा रहा इस समाज में,
कौन कहां किस जगह पर रहेगा।
जिसमें होती बहुत भिन्नता,
आपस में युग पुरूष बनकर जीते।

आज उसे मैं छोड़ नहीं सकता,
उसको बढाकर विकसित करुंगा।
परम-शक्ति बिन भाव नहीं चलते,
.विविध कथा में सुलझे रहे मन से।

सब कुछ त्याग कर रहे पहुंचते,
विधा छोडकर कुछ नहीं पाते।
. आते-जाते सभी रही स्थित,
इन्ही विचारों से जीवन काट देते।

13 “प्यार मुहब्बत में मिलता जीवन आधार”
———————————————-
प्यार मुहब्बत में फंस करके,
नहीं मिला कोई आभार।
कभी देखकर कर्म रहे करते,
देखा वह सूखा प्रक्रति आकार।

उसकी क्रतिम साधना देखा,
सोंच विचार कर जी रहे भरते।
देख लिया पर छुआ न अब तक,
भाव समर्पित गति रहे करते।

भौतिक सोंच में कितना रहा संयम,
क्रति,प्रवत्ति सबकी रही चलती।
कर्म स्वरूप में बन नहीं पाते,
प्यार में जीवन उद्रित रहे करते।

. कैसी मेरी रही धारणां,
घर परिवार मित्र चाहा उसे करते।
आज वहां तक जाना होगा,
सब उपचार ब्यवस्थित करके।

आज तलक मुझकों है जाना,
उस समाज की स्थित बदलकर।
धन दौलत की करें ब्यवस्था,
घर को बनाये भीषण शस्त्र रख।

हमें बहुत आगे बढ जाना,
भौतिक स्थिति की गति को रखते।
अच्छा बुरा समझता रहा अब तक,
भाव बदलकर प्रबल गति रखते।

जिस परिवार में मैं रहता हूं
.. . माता पिता का ध्यान रहे रखते।
ज्ञान शारीरिक शक्ति संजोकर,
बहुत स्थितयां स्यमं रहे करते।

कितना उनमें लगन प्यार है,
बच्चों हेतु वह बहुत रहे करते।
चोरी,बेइमानी,अनावश्यक कब्जे,
ठीक नहीं वह अनियमित रहते।

सब क्रतियों को बहुत देखकर,
. . यह सब काम पितामह रहे करते।
घर,परिवार पडोंसी सब लोगों से,
ध्रष्ठता करके अपने रंग रहे भरते।

इस समाज में कैसी रही ऋतियां,
बनी बनायी राहों में रहे चलते।
नियम के अर्थ को कभी नहीं समझे,
लोगों ने किया वह उसी में रहते।

कितनी आस्थिरता रही उसके मन में,
कौन परिस्थिति में वह रहे चलते।
उचित और अनुचित कभी नहीं समझे,
होना जो रहा वह उसी को करते।

किस स्थिति में कैसी परिस्थिति,
कैसा रहा रुतबा जलवा रहे करते।
पूर्ण रूप से टूट सभी जाते,
पाने की चाह में सब कुछ रहे करते।

आज हमारा भीषण रहा रुतबा,
हिम्मत हौसला लेकर रहे मचलते।
यदि विचार में सोंचों की यथोचितता,
तभी धारणां को प्रयोजित रहे करते।

प्रेम धांरणा रहे सब जीवों में,
निश्चित संस्कारों से प्रेरित रहते।
लालच औ मोह में आकान्छित प्रतिभा,
अहम के भावों को अस्पष्ट रहे करते।

इस जीवन के सभी विकारों को,
आकान्छित धांरणा से रहे बढ़ते।
किसको कितना अभी है करना,
कार्य को करने हेतु नहीं रहे समझते।

14. “शरीर में रहते संसारिक मौलिक भाव”
——————————————–
इस भीषण शरीर में रहकर
मानसिक भौतिक शक्ति नहीं दिखती।
कौन समाया है हम जैसे मानव में,
उसे समझकर हैरत रहे करते।

. बहुत सोंच कर समझ नहीं पाये,
कैसे इससे अपना पंगा करुंगा।
आत्मशक्ति रही बहुत मार्मिक,
मौलिक तेज-शौर्य स्यम भरूंगा।

छोटे पल को ढ़ग से मोडा,
बहुत समय हेतु प्यार कर बन जाती
उत्तम भाव को कैसे जोड़ू,
जुडऩे से अच्छे भाव लगाते।

प्रक्रति हमें समझाती रहती,
जुड-मुडकर हम रहे सोंचते।
सहज सरलता और सज्जनता,
जीव विकास हेतु ढ़ंग से रहे बहते।

बहुत रही सच्चाई मन की,
जिससे द्रढता-प्रतिष्ठा रही।
प्रकृति में दिखते जो विकार हैं,
उनका सामना मैं न करुं।

जिस समाज में हम सभी रहते,
बने समाज की रचना में जिये।
कर्म शिष्टता को भर करके,
स्यमं कार्य को ढ़ग से करुं।

मानव पौरुष ब्यापक विवरण,
बहुत शूरमाओं ने लाली दर्शायी।
फिर कैसे हम रुखसत करते,
तन की शक्ति से मन भाव लायी।

तन-मन विधा में कितनी ताकत,
कौन कला कैसे भिड़कर करेंगे।
यही सोंच कर बेसुध हो जाते,
हिम्मत दिखी नहीं हार से डरते।

बीर सूरमा मन से रहे सातिर,
बेकाम आत्मबल ताकत लाती।
शौर्य सिरोमणि वे बन जाते,
दिखते तभी जब बने अनुयायी।

कैसा घर जैसे भावों की कुटिया,
देखते नहीं ताजमहल ध्यान रखते।
बीरों ने खुद की आहुति की है,
भारत मां द्वारा पूर्ण शरण पायी।

तुमनें कैसे अस्त्र उठाए,
मौसम त्योहारों को भटकाकर।
प्रबल ज्योति अपने भावों में,
श्रष्टि सिरोमणि बनकर जिये।

.इस प्रथ्वी या आसमान पर,
कैसे सबने युध्द किये हैं।
कोई यहां आ करके धंसा है,
नागरिकों का अभिनन्दन लिए।

15 “प्यार मुहब्बत में रहता भाव आधार”
—————————————-
प्यार मुहब्बत में जब फंसते,
मिलता नहीं आधार वहां।
बहुत देखकर कार्य नहीं करते,
उसे देख शुष्क विधा समझते।

किसी की क्रतिम साधना देखकर,
सोंच विचार कर जी भर लेते।
देख लिया पर छुआ कभी नहीं,
भाव समर्पित कर वैसा कार्य करते।

भौतिक सोंच में कैसा होता जीवन,
कार्य-प्रवत्ति कर चलते उसी तरह।
कर्म-स्वरूप से हो नहीं पाते,
.प्यार से केवल उद्रित हो जाते।

कैसी मेरी भाव-धारणां,
घर के साथ मित्रों को भाती।
.. आज वहां तक जाना मुझे होगा,
पूरे उपचार से ब्यवस्थित करेंगे।

पूरी तरह हमकों जाने में,
बदल जायेगी उसकी स्थित।
धन दौलत की कैसी ब्यवस्था,
घर को सजाया शस्त्र लगाकर।

हमें बहुत आगे बढाने में,
भौतिक गति को बदलना होगा।
.अच्छा-बुरा स्यमं खुद समझे,
भाव बदलकर उस पर चलते।

जिस परिवार में वहां कोई रहता,
माता-पिता का ध्यान ढ़ग से रखता।
ज्ञान ध्यान की शक्ति लगाकर,
उस स्थित को स्यमं रहे करते।

.कितना उनमें लगन प्यार है,
बच्चों हेतु वह बहुत रहे करते।
चोरी,बेइमानी,और भौतिक कब्जे,
.नियम से नहीं अनियमित रहे करते।

उक्त क्रतियों को देख रहा मैं,
जिसको सभी पितामह थे करते।
घर परिवार पडोंसी साथ लोगों से,
ध्रष्ठता करके अपने रंग भरते।

इस समाज में कैसी रही ऋतियां,
बनी बनायी सब राहों में रहे चलते।
नियम के भाव को कभी समझा नहीं,
लोगों ने जो किया वही रहे करते।

. कितनी अस्थिरता रही जीवन में,
कौन सी स्थिति में कैसे जिये हैं।
बिनभावोंकेउचितअनुचित समझा,
होना जो उचित वह समाज में किये हैं।

कैसी स्थिति कौन परिस्थिति,
कैसे रुतबा जलवा रहे देते।
पूर्ण रूप से टूट जब जाते,
उसको पाने हेतु सब रहे करते।

आज हमारा रहा भीषण रुतबा,
जिसमें दिखता रहा हिम्मत हौसला।
यदि विचार संग सोंच यथोचित,
.. . तभी धारणां बन रही प्रयोजित।

…प्रेम धांरणा सब जीवों की,
निश्चित सोंच संस्कारों से होती।
.लालच मोह अकान्छित प्रतिभा,
अहम भाव स्पष्ट होकर धांसित।

इस जीवन के सभी विकारें,
. अकान्छित धांरणा से वह बढ़ रही हैं।
कैसे कितना कौन बनेगा,
बिना समझ के कार्य रहे करतें।

बहुत रहा जीवन का गौरव,
जिसके लिए दिन रात चले हैं।
कहतें हे !भगवान मदद करता,
स्यमं को वह कुछ ध्यान नहीं देते।

..सारी रचना और ब्यवस्था,
ऐसे ढ़ग उसको पार रहे करते।
. सहज सरलता और कठिनाई,
उसको लेकर साथ रहे चलते।

16. “मानव शरीर में मानसिक विधा का संचरण”
———————————————————
इस भीषण शरीर को समझो,
मानसिक भौतिक शक्ति है इसमें।
कौन सा रुप घुसा भावों का,
. जिसे समझने की हैरत नहीं।

बहुत सोंच कर समझ न पाये,
. कौन विधा से इनसे शक्ति पाउंगा।
आत्मशक्ति बिन मूर्ति के ब्यापित,
भीषण शक्ति भाव उससे पाउंगा।

छोटे पलों को तोड़-नहीं सकता,
सौर्य की जैसी शक्ति को मानूं।
उत्तम भाव को किस विधि समझूं,
जुडऩे के बाद हम समझ न आते।

प्रक्रति हमें समझाती रहती,
संग से जुडकर आत्मशक्ति देती।
सहज सरल सज्जन सभी रहते,
विवस छोड़कर शीर्ष ओर बढ़ाती।

बहुत तभी सच्चाई आती मन की,
.. जिसने द्रढता प्रतिष्ठा सभी आती।
प्रक्रति में कैसे क्या विकार हैं,
.जिसका सामना हम द्रढ़ता से करते।

जिस समाज में हम रहतें हैं,
…. उसकी रचना देख समझ करते।
कर्म-शिष्टता किस विधि से आती,
क्रत्य भाव कर वैसा रुप दिखाते।

मानव पौरुष का सक्त सरल आवरण,
…. प्रकृति शूरमाओं की लाली ले लेते।
फिर भी सब भावों से रुखसत रखते,
खुद की शक्ति को मन से रखते।

मन स्वभाव में कितनी है ताकत,
. मौलिक कलाकर उस शक्ति भिड़ जाते।
बहुत बार स्यमं बेसुध वह हो जाते,
हिम्मत से नहीं वह विधा से डरते।

बीर सूरमा कितने रहे सातिर,
. विधा के बाद आत्मबल से लड़े हैं।
शौर्य सिरोमणि स्यमं बन करके,
तभी वह दिखाते समाज में ब्यापक।

कैसा यह घर कभी रही कुटिया,
. भाव ब्यवस्था रखके ताजमहल लगते।
बीरों ने आहुति राष्ट्र हेतु की है,
भारत मां से प्रीत स्यमं विधा में रखी है

.. उन जैसों ने जब अस्त्र उठाए,
मौसम ब्यवहार से वह भटके हैं।
प्रबल ज्योति जब मन में मेरे आती,
श्रष्टि सिरोमणि देख स्यम बिछड़े हैं।

इस पृथ्वी या आसमान पर,
.. कैसे किससे युध्द होयेगा।
कोई वहां जाकर फंस जाता,
जमीं आसमां पर लड़ने को सोंचता।

17 “जीवन की क्रत्य-व्रत्ति विचार हेतु”
—————————————-
कैसी कृति तथा कौन वृत्ति है,
जिसको दिन रात रहे सोंचते।
प्रखर शक्ति यदि नहीं जीवन में,
सोंच विचार में बल नहीँ मिलती।

कौन भरेगा भावों में ताकत,
तथा शारीर में रौनक दिखेगी।
कौन ब्यवस्था तन मन में होती,
आनन्द-खुशियां से सम्ब्रद्धि करती।

आंखों में आ जाती मन की व्रत्तियां,
भाव आव्रत्तियां सब भावों में दिखती।
पशु-पक्षी जैसी क्रतियां दिखाते,
विधा समझकर उनके भाव लेते।

मानव के कितने भाव हैं ब्यापक,
मुहब्बत की व्रत्तियां आत्मसंतोष देती।
तन मन में होता कैसा बंधन,
वह सामाजिक भावों को झेलती।

जीव की अन्तिम सब सांसों तक,
प्रेम और चाहें स्यम रहे देते।
यदि अपना समाज मिट जाये,
सब कुछ खोने बाद मौलिक बनते।

इस संसार की कैसी प्रगति है,
प्रक्रति के सभी लोग उनसे ले लेते।
..बहुत सोंचकर मुझको बतलाते,
बिना भाव विधि कुछ नहीं करते।

हवा व सूरज में विचार कर,
नैतिक भाव भावना रहे देते।
उनकी चीजों को नहीं सोंचते,
केवल चाह में स्यमं मिल जाते।

.कम करने का भाव स्यम करके,
उसमें नहीं कहीं और रह लेते।
केवल विधा की.होती आवश्यकता,
बिना कुछ पाये खुद तन मन में रहते।

संचालित समाज के बहुत नियम हैं,
श्रद्धा-नियम संग समय में बदलते।
अपने मन की तीक्ष्ण शक्ति से,
बिना चाह के सब रहे करते।

. ज्ञान और विज्ञान की क्रतियां,
कसम और संस्कार बिन करते।
बहुत ब्यवस्थित रहे जीवन में,
उसके बाद खुद भावों में रहते।

अपने भावों को स्यमं में रखकर,
. धन-दौलत को तन मन से खोते।
बहुत लोग उन्माद में बहकर,
.. दिखी निर्लज्जता को स्यमं देखते।

रहे हमारे कितने साथी,
पाने की चाह में क्या रहे कहते।
उनका लक्ष्य रहा जीवन में,
भाव भावना साथ रख रखते।

ज्ञान और विज्ञान लेकर,
उसको पाकर आप तक पहुंचते।
प्रेरक पूर्ण धांरणा भर करके,
. संयम सहज को विधिवत चलाते।

18. “स्वाभाविक जीवन में विधि विधा के भाव”
———————————————–
कैसी गति-प्रवृत्ति हमने देखी,
.दिन रात उसको साथ में रखते।
.प्रखर शक्ति यदि नहीं भावों में,
.सोंच विचार में नहीं बढ़ पाते।

परम शक्ति ने भरी मुझमें ताकत,
भाव शारीरिक शक्ति से चलती।
. कैसा सामन्जस्य मिला तन मन को,
आनन्द खुशियां मिलकर जीतते।

आंखों में आयी मन की व्रतियां,
तभी शारीरिक भावों रहे दिखते।
पशु पक्षी की अपब्य मानते क्रति,
स्यम समझकर खुद रहे चलते।

.मानव केवल हम चुप-छिपकर,
प्यार-मुहब्बत की क्रति रहे करते।
तन मन शक्ति का बन्धन रहता,,
सब दुश्कृति को झेलकर रहते।

जीवन की अन्तिम सांसों तक,
.. प्रेम-चाह में सदा लिपटे रहते।
अपने भावों को स्यम से मिटाकर,
सब खो करके उनके भाव रहते।

.. इस संसार की कैसी है स्थित,
.प्रक्रति के सभी लोग रहे झेलते।
बहुत सोंच कर उसको दे दिया,
बिना भाव के कुछ नहीं पाते।

..हवा सूर्य में जो विकारकृति,
जिसमें रहती निश्चित भावना।
. हम चीजों को समझ नहीं पाये,
.. सब कुछ छोड़कर कहां पर जिये।

कम पाने में कैसे रहूंगा,
अपनों से नहीं औरों से ले लूंगा।
..केवल क्षणों की रही आवश्यकता,
बिना कुछ सोंचे तन-मन भरुंगा।

…इस समाज में बहुत नियम हैं,
.. .सदा स्यम श्रद्धा-नियम से रहे हैं।
. अपने मन की तीक्ष्ण शक्ति से,
बिना अस्त्र के सब करते रहे।

ज्ञान-विज्ञान की जो रही क्रतियां,
.. .क्रिया हेतु संस्कार भाव साथ लिये।
बहुत ब्यवस्था होता रहा जीवन,
क्रत्य बाद सभी भाव धन्य किये।

अपनी इच्छा को सुद्रढ़ रखने से,
..धन दौलत तथा अन्य विधा खो दिये।
. बहुत लोग उन्माद में जीकर,
. कुछ निज्जलता को स्यमं सह लेते।

रहे हमारे बहुत से साथी,
… पाने की चाह हेतु सब रहे करते।
जिनने लक्ष्य बनाया जीवन हेतु,
भावों में रहकर वही रहे करते।

ज्ञान-विज्ञान को विधि से सोंच,
अपने भावों में पहुंच नहीं पाते।
हे मेरे प्रेरक विधिदाता,
पूर्ण धांरणा मुझकों दे दो।

, संयम सहज भाव की कृति जो,
उसको मेरे जीवन में कर दो।
संसारिक विधा को कैसे समझा,
परमशक्ति विविध विधा से भर दो।

19- “भाव विचारों से आवाजों का परिमर्जन”
——————————————–
भाव विचारों का कैसा रहा क्रंदन,
आवाजों में भीषण रही गर्जन।
कौन सी घटना क्या विचार थे,
लड़कर बन गये जग अभिनन्दन।

यह जमीन है सास्वत निष्ठुर,
बहुत धधक औ छुपी है गर्जन।
सब कुछ पाकर खुशी में रहते,
भाव विचारों में रखते रहे वर्धन।

म्रदुल और हरियाली खुशियां,
.शुष्क पेड़ में नहीं होती खुशियां।
तीक्ष्ण रोशनी भीष्ण दिखाती उर्जा,
सौम्य शिष्टता का करते अभिनन्दन।

…आज कहां कोई पैदा हुआ है,
जाति धर्म तथा भोगों में रहते।
कितने लोग रहे पूर्ण निराश्रित,
जीवन रहता समाज से आश्रित।

.आज सबकी होती पूर्ण तमन्ना,
बिना किसी कारण सोंच में रहते।
.सभी लोग मिल जुलकर रहे कहते,
मिलकर कामों को ठीक से करते।

कितने लोगों की रही ध्रष्टता,
वह कामों को ढ़ग से रहे करते।
..अगर शक्ति कुछ अक्षम दिखतीं,
चिल्लाकर मिल जोश से रहे करते।

. धन-बल जब बढने लगता,
कौन किस रुप से काम में लगता।
नीति अनीति को जगह में रखकर,
दूषित कार्य स्वाभाविक कृति करते।

बहुत प्रबंधन होता जब भावों में,
..घर परिवार समाज रहे देखते।
कौन कहां कैसे मिल जाता,
प्यार-मुहब्बत ध्रष्टता ले भरते।

गन्दी-मिट्टी,दूषित-पानी,
मानव वरण में सभी संग रहते।
.चलने में पैर ब्यवस्थित रहकर,
द्रढ़ से चलकर काम रहे करते।

रात-दिनों में रहे सोंचते,
कहां पे रखकर कैसे करुंगा।
सब स्थित के पार हेतु लगे रहे,
. बिरोधी भावों को ढ़ग से सोंचे।

हो जाता है कैसा अनुबन्धन,
.सभी विचारों को ठीक से भरते।
कार्य-कलापों का कैसा रहा बन्धन,
समझ बूझकर अनुबन्धन करते।

सहज, सरलता ,शक्ति-प्रबंधन से,
उक्त से समाज में होता अभिनन्दन।
इस समाज में दिखती क्रति-दुर्गति,
सहज सुशोभित कर जीवन रहे जीते।

परम असीमित शक्ति को भरकर!
.इस समाज को पुरष्क्रति रहे बनाते।
समय अभिभाव जो सभी दूर होते,
रो-गाकर सब भाव कैसे बिखर जाते।

हे!मेरे तुम परम प्रणेता,
अपनी शक्ति को मुझमें भर दो।
भाव धारणां जो जीवन में,
उसको शक्ति सिरोमणि कर दो।

20 “भावों के आधार पर आकर्षण-विकर्षण”
————————————————-
. ..कैसा प्यार भरा है तुममें,
कितना आत्मिक है आकर्षण।
समझ न पाया ऐसी विधा को,
मन में मेरे रहा भाव घर्षण।

यदि तुमसे मिल जाऊं कभी भी,
फिर मैं कैसे अन्यों से मिलूंगा।
इस संसार की कैसी रही स्थिति,
किस हेतु तुम्हे आभार करूँगा।

चमत्कार में बहुत कलायें,
उनमें मैं कैसे सामिल होऊंगा।
समझ बूझ कर चाह को रखा,
दिख रहा मुझमें तुम्हारा अर्पन।

कैसी कथा तथा अन्य विधा है,
.बिना उसे समझे खुद में भर लूंगा।
किस स्थिति में काम हेतु पहुंचे,
बिन भावों के काम करुंगा।

मेरे पूज्य संस्कारी पितामह!,
ज्ञान विज्ञान कर इतिहास दिखा दो।
बहुत परिस्थिति बदल दिया विधा ने,
..भाव भुलाकर मुझको ढंग से लगा दो।

साथ मेरे जो पास रह रहे हो,
ज्ञान से रिश्ते भावों मुझे दे दो।
. बहुत नहीं आवश्यक है सब कुछ
जैसे जो हुआ वह अब पुनः होने दो।

शिक्षा का ब्यापक हैं अन्तर
उसकी धरा पर कौन पंहुच पाता।
जिसके मन में जितनी ताकत,
भाव विवेचन को मन से स्यमं करता।

. बहुत अधिक जीवन में लगाकर,
सुन्दर खाकर प्यार से रहा करते।
कहते अपनी विधि द्रष्टि पहचानी,
परिवार को उच्च बनाना है कहानी।

सोंच-विचार की सुन्दर क्रतियां,
रुप-रंग सबको नियम से रहे करते।
बहुत नष्टकर वहां को पहुंचते,
संस्कार सभी भाव गलत रहे करते।

दिखती रही प्रतिभा और प्रतिष्ठा,
.बहुत बड़े चमत्कार दिखी ताकत।
अपने मन में यौगिक रही ताकत,
लोगों के मन का काम स्यमं करते।

नहीं कोई आवश्यक इतना,
धन-दौलत अन्य काम करने लगते।
इसमें लोगों का बहुत रहा बन्धन,
उसके लिए कहां क्या रहे करते।

धैर्य या संयम से पूर्ण होता जीवन,
भौतिक वाधा को स्यमं रहे पिघलते।
..आध्यात्मिक जीवन में रहा सभी कुछ,
बिना दर्द सभी भाव रहे सहते।

बहुत ज्ञान-विज्ञान दिखाकर,
ज्ञान नहीं स्वीकार वही करते।
.कुछ लोग लेकर पास आ गये,
.कुछ लोग कैसे दीवाल झांकते।

लोगों की कैसी प्रतिष्ठा-शिष्टता,
रोंक कर हमें भावना देतें रहता।
जाने से वह सब हैं छूट जाते,
संयम ज्ञान सभी भावों को रखते।

21– “मौसम के आधार पर ऋतुओं के भाव”
——————————————-
हरे पेंड पतझड़ जब बनते,
आंधी-तूफां-गरम ऋतु करते।
संम्बन्धी,पूर्ण सौह्राद्य में रह रहे,
सौम्य सी उर्जा!उससे खुद देते।

शौर्य में रह और पराक्रम कर,
मूल शक्ति मिलाके बहुत कर लेते।
प्रक्रति है रखती शक्ति नियोजित,
.परम शक्ति उसको सास्वत करती।

मानव कितना ज्ञान से ब्यापित,
भावों से क्रति और विक्रति बनाती।
संसारिक क्रतियों से भूषित होकर,
मूल प्रक्रति को बदल नहीं पाती।

जब कोई महान कार्य करता,
सोंच समझकर स्यमं गति करता।
कोई बताता रहा भाव वृत्तियां,
रंग-रुप बता कर स्नेह रहा देता।

धन दौलत की प्रतिभा बताकर,
अपनें पूर्वजों की शौर्यता थे बताते।
सब कुछ छोड़ कर ब्यवसायिक बनते,
कार्य ब्यवस्था को ढंग से करते।

जिनने सब कुछ छोड दिया है,
मौलिक प्रतिभा को रहे खोजते।
परम शक्ति को खुद धांरित कर,
.. पौराणिक शक्ति का भाव ले लेते।

बहुत विचारों में पड़ा रहा मेरा भान,
सो रहे समय से कैसे उसे जगाऊं।
विक्रति करने की नहीं रही हिम्मत,
. .युद्ध में कैसे उसको भगाऊं।

हे!मेरे परवर दिगार तुम,
नयी शक्ति का पराक्रम भर दो।
इस संसार की भौतिक गति में,
नयी रोशनी की स्थिति कर दो।

.इस शरीर की भीष्ण शक्ति को,
पूर्ण मानसिक शक्ति बना दो।
अंजर पंजर ध्वस्त दिखे तब,
टूटी विधा में सिरोमणि भर दो।

.बीर सिरोही उत्क्रष्ट अनुयायी,
शारीरिक निम्नता स्यमं से त्यागो।
सामान्य जीवन को अनुशासित कर,
लोगों में उत्साह भाव जगा दो।

..जाग्रत विधा में शक्ति दिखाकर,
उसमें मौलिक विधा को विधा से भर दो।
.नहीं मुझे कुछ लेकर जाना है,
स्थिति शक्ति को मूल विधा कर दो।

22 ऋतुओं के आधार पर पतझड़ में वृक्षोंकी स्थित
———————————————————
हरे पेंड पतझड़ बन जाते,
आंधी-तूफां-गरम ऋतु पाकर।
तभी वहां सौह्राद्य बना उपवन,
सौम्य सी उर्जा! भाव बन दिखती।

.बहुत है शौर्य,श्रष्टि की विधियां,
मूल स्थिति को त्याग कर भगा दो।
प्रक्रति में कितनी शक्ति संयमित,
परम शक्ति हेतु अर्पित खुद कर दो।

. मानव कितने ज्ञान से सज्जित,
भाव से क्रति और विक्रति दिखाते।
संसारिक क्रतियां में रहे ब्यापित,
मूल प्रक्रति को बदल नहीं पाते।

भीषण तथा महान कार्य करके
सोंच समझ बिन मौलिक ओर बढ़ते।
कोई बता सकता नहीं स्थिति,
रंग-रुप बनाकर स्नेह भाव दिखते।

.धन दौलत तथा प्रतिभा प्रतिष्ठा को,
अपनें पूर्वजों का शौर्य खुद बताते।
सब कुछ छोड़ कर बहुत दूर हो गये,
मौलिक दिखाने का कार्य रहे करते।

…जिनने बहुत कुछ छोड़ दिया है,
भौतिक प्रतिभा खजाना समझकर।
परम शक्ति को धांरित करके,
.पौराणिकता में दिल को लगाते।

बहुत विचार रहे मेरे मन में,
सो रहे भीषण उन्हें कैसे जगाऊं।
विक्रति करने की हिम्मत नहीं,
.युद्ध में कैसे उन्हे उलझाऊं।

हे!मेरे परवर दिगार तुम,
नयी शक्ति सुद्रढ़ विचार दो।
इस संसार की भौतिक गति में,
मौलिक रोशनी-पराक्रम भर दो।

इस शरीर की भीष्ण शक्ति ने,
मानसिक शक्ति का साथ किया है।
अंजर पंजर ध्वस्त हुए सब,
. टूटी चीजें सिरोमणि से जुड़ी हैं।

बीर सिरोही उत्क्रष्ट बनकर,
बहुत शारीरक भावों को त्यागो।
..सामान्य जीवन अब्यवस्थित करके,
लोगों में उत्साह भाव जगा दो।

जाग्रत भावों में ब्यापक शक्ति को,
राष्ट्रीय भावों को पुनः चला दो।
नहीं मुझे कुछ ले है जाना,
सोई शक्ति में प्रतिभा भर दो।

23 . “प्यार में आच्छादन में विचारों के भाव”
——————————————–
कितने प्यार का रहा आच्छादन,
कौन भावना संस्कृति को दे दिये।
बिना चाह के धांरण करके,
मिलने का पता वह रही ढ़ूढ़ती।

समाप्त भाव में भोजन कराकर,
.मिलने हेतु आकर्षण करती।
भाव-शरीर से बहुत मिला है,
किसको-किससे कैसे मिलती।

किससे-किसको-कितनी चाहत,
नहीं पता वह कैसे मिलेंगा।
मन भर से वह सबसे चाहा करते,
मौलिक सोंच बिन पा नहीं पाता।

वैसे सब भाव स्यमं हैं मन में,
उसी चाह में डूबकर जिये हैं।
बहुत समय से पाने हेतु में,
. लगता चाहों में उसे पा सके हैं।

एक बार उपभोग में हमनें,
भावक अर्क को प्यार में डुबोया।
आत्म संत्रप्त में बन कर टूटे,
दिखता रहा मन का बिक्षेपण।

मानव प्रक्रति की रही अनुबंधता,
पाकर उसे निपटाते रहे हैं।
बहुत छूट गये उन रस्तों में,
.वहां पंहुच कर शांति पाये हैं।

प्रिय आराम से तुम आ जाओ,
बहुत समय से चाह तुम्हारी।
दिल मुझमें अब टूट गया है,
क्यों बचाता रहा वह सहारा।

कैसे ह्रदय में आयी धडकन,
सब कुछ मुझमें भडक अभी है।
अब तक मुझक़ो इन्तजार था,
मन-तन फिर भी फफका कम।

है विचार की कैसी लीला,
इस स्थिति को ढ़ग से समझो।
रही कल्पना ऐसी रचना,
वैज्ञानिक का कर्म न समझो।

बहुत कल्पना रही विचारों में,
संगम करके बनेगी प्रियतम।
यदि संयोजन में कोई दिक्कत,
. सुधार करके सब कार्य करेगा।

बहुत यहां के सूक्ष्म कारवां,
.तन-मन और समय उन्हे दे दो।
गणना यदि हो मन में कर लो,
सूक्ष्म भाव विकराल बना दो।

साहित्यिक,वैज्ञानिक जो हैं,
शक्ति समर्पित उसमें कर दो।
बहुत त्याग की रही ब्यवस्था,
.संचालित कृति को ब्रहद चला दो।

यही समझकर बहुत लोग गुजरे,
प्रबल धारणां शक्ति उदय कर।
नहीं रही कट्टरता मन में,
समय बिताकर विधिवत किया।

24 “बहुत पहले पीने के बाद नशा आज तक”
————————————————-
. बीते दिनों में कुछ नहीं पी है,
फिर भी मुझमें नशा बहुत है।
किसको कितना कैसे पकड लूं,
इसी सोंच में विधा हमने की है।

घर मेरा मयखाना कबसे,
कितना पीकर कुछ पलटे हैं।
नहीं मुझे देना है कुछ भी,
मुह फैला कर माग रहे हैं।

कितनी सुन्दर कैसी क्रतियां,
पीने का आशा अब तक किये हैं।
स्यम नशे में पागल हो कर,
बिना पिये खुद द्वंद किये हैं।

लोगों ने बहुत रास्ता बनाया,
चलकर मुझको वहां तक पहुंचाये।
सभी विधा को स्यम बन्द कर,
खा पीकर अहसास नहीं पाये।

…जग में कितना प्यार भरा है,
खाये-पिये बिन उसको पाना है।
कुछ चिल्लाकर मांग रहे हैं,
.मौलिक चाह को हमें पीना है।

.इस दुनिया में बहुत हैं उपवन
जंगल के पेंड बेतरतीब जो हैं।
सब ऋतुओं में खूब बदल जाते,
उत्सुकता रखकर भाव भरते हैं।

.भूख की कितनी होती तमन्ना,
बिना पिये नहीं त्रप्ति है मिलती।
खानें से ज्यादा पीना की चाहत,
उसकें बिना निस्तेज दिखे हैं।

.मंदिर तथा सभी अनुसंधानों में,
बहुत समय तक विधा किये हैं।
बिना पिये कुछ कर नहीं सकतें,
मिलने की चाह में जिये हैं

घाट बहुत हैं उसे पीने के,
घाट बाजार और मेले रहे हैं।
परम मित्र या गुरु व दुश्मन,
. पीने की दर्द की जानकारी मुझमें।

पीने के दर्द में रहती मर्यादा,
जिससे प्रतिष्ठा,इज्ज़त बेंच दिये।
पीढ़ी-दर पीढ़ी सभी तबाह हुई,
ज्ञान विज्ञान गुरु वाणी मिली हैं।

पीने में देखा बहुत घर में,
.ऊंची नीची जाति बिरादर हुए हैं।
उन सब चीजों को हमने छोडा,
नियम कानून सभी तोड़ दिये हैं।

पीने की चाहत को छोड करके,
बहुतों की पूजा स्यमं किये है।
फिर भी धारणां कैसी रही है,
.दवा व दारू दोनों चीजें लिए।

25– फिजाओं के देखने के बाद भावों में चंचलता
————————————————–
देख रहा हूं अपनी विधा से,
कितने ब्याकुल और चंचल हैं।
फिर भी इससे मिलना मुझको,
निम्न या ब्यापक रुप का घर।

किससे तुमकों क्या पाना है,
किसके लिए बहुत हो ब्याकुल।
. जिसनें चाहा मिला उसी को,
उसके लिए तुम क्यों आकुल हो।

किसी की चाह में त्रप्ति नहीं है,
पाकर सोंच के वह ब्याकुल।
उस स्थिति में तुम मत जाओ,
उसमें अब कोई चाह नहीं है।

आध्यत्मिक,संसारिक रहा जीवन,
ब्याकुलता में सभी इसमें रहते।
इसमें बहुत कठिन दुष्क्रति है,
चाह-समभावों में वह जीते हैं।

भाव विचारों की करुणां में,
सभी दिख रहे क्रतिम प्रबल।
बहुत आनन्दित दिख रहे ज्यादा,
स्यमं का शौर्य पराक्रमी बल।

मानसिक और मूल क्षमता से,
..मुझको बहुत दूर है जाना।
कैसे रुप बनाया हमने,
उसे देखकर सबको लुभाना।

आज ब्रहद सी रही भावना,
बडे से छोटे रुप अलग।
जन जीवन सब टूट जायेंगे,
आज भीड देखे कल होंगे अलग।

पूरे तन को चमत्कारिक करके,
क्रिया प्रतिक्रिया सब साथ देते।
कपडों ने कितने ढ़ग बनाये,
..समय जगह पर कैसे बनाते।

बहुत सजीवित रहा आकर्षण,
बहुत सी क्रतियां रही बदलती।
सोई बुझी आत्मा रही मेरी,
पाकर उसको बहुत खुश होते।

टूटी-फूटी बन्द खड़ी में,
बहुत झगड़कर हमने पाया।
आज देखकर मैं रोता हूं,
पायी चीज से हर्षित हुए।

बिन बिचार के उसमें रही चाहत,
माया-मोह से सभी चिपटे हैं।
मौलिक धांरणा विधा में भरकर,
..परमपिता से नहीं लडे हैं।

हे!मेरे परवर दिगार तुम,
.परम शक्ति में भाव बना दो।
सभी रुप में रहे बदलते,
आकुल-ब्याकुल भाव खतम।

बहुत बडें सन्यासी बन कर,
धन-दौलत औ प्रक्रति न रखे।
इन्सानों की प्रक्रति रही ऐसी,
शेष पूरे जीवन में वैसा रहते।

Language: Hindi
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