नई उम्र की नई फसल
नयी उम्र की नयी फसल ,
बहकी हुई भटकी हुई नस्ल ।
नस्ल तो है यह आदम जात ,
भूल गयी जो अपनी ही औकात ।
भौतिकता औ आधुनिकता ने ,
कुछ इस तरह दिया इसे बदल ।
शराफत ,तहजीब और मुहोबत ,
भूल गए सब बस याद है दौलत ।
विदेशी भाषा ,संस्कृति और लिबास ,
नहीं भाता अब हिंदुस्तान इन्हें खास ।
यह लिखेंगे वतन का मुस्तकबिल !
वतन की इज्ज़त को करते है धूमिल।
यह नस्ल सगी नहीं अपने माँ-बाप की ,
अर्थी निकालते उनके अरमानों की ।
बचाना है गर देश का भविष्य ,
तो कर लो पक्का एक निश्चय ।
मिटाकर इन खरपतवारो को ,
उच्च चरित्रवान ,संस्कारी नस्ल बनाना होगा ।
अनुशासन और कुछ प्रेम से ,
सौहाद्र से इन्हें बहुउपयोगी बनाना होगा ।