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13 Feb 2019 · 1 min read

दोहे

पगडंडी का पाट
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खड़ा रेत पर मौन है, प्रौढ़ नदी का घाट.
बाट देखता भीड़ का, पगडंडी का पाट.

खेल रहा है फेसबुक, एक विलक्षण खेल.
चुपके-चुपके चल रही, प्रेम कथा की रेल.

भाव जगत को दे रही, एक नया अवतार.
गीत और नवगीत की, पतली सी दीवार.

वोटतंत्र की चाल है, या कोई अनुयोग.
लोकतंत्र की लैब में, होता योग प्रयोग.

‘कविता’ के घर में नहीं, टिक सकता ‘अवसाद.’
‘यादों के पंछी’ अगर, करते हों ‘संवाद.’

अनुभव के हैं खोलते, छिपे-छिपाये भेद.
बाल कभी होते नहीं, अपनेआप सफेद.

शिवानन्द सिंह ‘सहयोगी’
मेरठ

Language: Hindi
257 Views
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