जितने भी मुसाफ़िर थे सभी पार हुये हैं
जितने भी मुसाफ़िर थे सभी पार हुये हैं
कहने पे मसीहा के समझदार हुये हैं
किरदार कहानी के मेरी सच में हैं ज़िन्दा
आकर के मेरी ज़ीस्त के सरदार हुये हैं
बेशक़ ये जहाँ और है वो और जहाँ था
आदिल भी ज़माने में वफ़ादार हुये हैं
आँखों में हुये क़ैद जो ज़ुल्फ़ों से थे छूटे
जितनों की रिहाई थी गिरफ़्तार हुये हैं
इक़बाल तक़ी दाग़ न ग़ालिब का है सानी
वैसे तो यहाँ ख़ूब क़लमकार हुये हैं
इस बार सियासत में न हैं काम की बातें
जुमले ही सदा उनके असरदार हुये हैं
दौलत के बड़े ढ़ेर पे कुछ लोग हैं बैठे
वो ही तो मेरे शह् र के सरकार हुये हैं
अब तक तो भरम ये था कि पत्थर के हैं दिलबर
आंखों में नमी देख के बेज़ार हुये हैं
‘आनन्द’ सदा ढूँढ़ ही लेते हैं कोई हल
हालात से पहले जो ख़बरदार हुये हैं
शब्दार्थ:- आदिल = जज
– डॉ आनन्द किशोर