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4 Nov 2021 · 1 min read

चांद और माँ

मैं क्षितिज की गोद में
जब देखता हूँ आज भी
अधजली रोटी की माफ़िक़
अर्ध पीला चन्द्रमा
बेधती हैं आत्मा को
चन्द्रमा के मध्य उभरीं
काली भूरी अधकटी
चित्र सी रेखाओं में
क़ैद मेरे अतीत कीं
अनगिनत स्मृतियाँ।।

माँ के आँचल का वह साया
वह खुला आकाश तारे
चांदनी का फर्श
आँगन में बिछी चारपाइयां
पास में सोई हुई
दादी के खर्राटों की गूँज
मन्द पुरुवा में घुले
दादा के तम्बाकू के गन्ध
दूर बरगद पर कहीं
जागे हुए पंछी के स्वर
कुलबुलाते माँ की गोदी में मेरे भाई बहन।।

याद है जब माँ ने
दिखलाया था मुझको चाँद में
कांपती ऊँगली से अपनी
बूढ़ी माँ के अनबुझे
मौन से चेहरे का अक्स।।

याद है जब चन्द्रमा को
माँ ने बतलाया था मुझसे
अपना इकलौता सगा भाई
मेरे मामा का रूप।।

मैं क्षितिज की गोद में
जब देखता हूँ आज भी
दूर मीलों दूर
गगन के मध्य पीले चाँद में
काली भूरी अधकटी
जब चित्र सी रेखाओं को।।

सोचता हूँ नित्य नए
आकार में ढलती हुई
इस अ-आकार काले
टेढ़े मेढ़े पत्थरों के
अनगढ़े बेडौल और
निर्जीव सी चट्टान से
क्यों माँ को इतना प्रेम था??
****

सरफ़राज़ अहमद “आसी”

Language: Hindi
172 Views
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