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19 May 2020 · 1 min read

घर कछ नहीं

मुफ़लिसी का दौर है, घर कुछ नहीं
दोस्त अच्छा हूँ मगर, ज़र कुछ नहीं

कल को क्या होगा ख़ुदा जाने मेरा
अब तलक मुझको मयस्सर कुछ नहीं

ये अगर सब मान ले रब हर जगह
पूजते जिसको वो पत्थर कुछ नहीं

कौन रोकेगा मेरी परवाज़ को
हौसलों से उड़ना है, पर कुछ नहीं

क्यों दिखावा आदमी करता है यहाँ
ऐसा भी होता है अंदर कुछ नहीं

ज़ख्म ग़हरे लफ्ज़ इतना कर गए
जिनके आगे तो ये खंज़र कुछ नहीं

शायरी करना हमारा शौक है
कैसे बतलाएं के चक्कर कुछ नहीं

छोड़ कर जाने का कैसा मशवरा
बिन तेरे ये तेरा ‘सागर’ कुछ नहीं

5 Likes · 2 Comments · 416 Views
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