कोयले की कालिख
जब मैं छोटा था, मेरे शहर में कोयले जलाये जाते थे, जलावन के लिए. हर तरफ सिर्फ कोयले का कारोबार नजर आता था, चाहे वो उच्च वर्ग के लोग या मध्यम वर्ग का परिवार. सबसे बड़ी विडंबना उन गुरबत में रहने वालो के लिए, जिंदगी को जोखम में डाल कर बंद पड़े कोयले के खदानो से कोयले को निकालना. यह कोयले की चोरी साथ में सि.आर.पी.एफ के सिपाही की
रजामंदी से होती जो बदस्तूर आज भी जारी हैं.
बड़े बुढ़े हो या बच्चे सभी दो जुन की रोटी कि तलाश में . मौत से खेलकर बंद पड़े खदानो से निकलने वाले मिथेन गैस से जंग लड़कर कोयला निकालते हैं.
शिक्षा की हालत पुरी की पुरी चर्मरायी हुई हैं, ना ही ये लोग शिक्षित हैं, ना स्वास्थ्य ही अच्छा हैं, गरिबी की व्यथा की चक्की में दिन रात पिसते लोग.
इन का श्रृंगार कोयले की कालिख हैं, दिन रात कोयले में जीना यही अजिवीका का साधन हैं, सरकार की प्राकृतिक संपत्ति कोयले का अवैध खनन, हमारे शहर धनबाद में चलतीं ट्रेन से कोयले को उतारना, चलती डंफर से कोयले की चोरी, आर, पी, एफ पुलिस से मार खाना कभी कोयले में मौत के घाट उतर जाना.
यह क्षण हृदय विदारत भी हो जाती हैं, इनके पार्थिव शरीर को कुङे के ढेर सा फेंक दिया जाता हैं, जिससे मानवता भी शर्मशार हो जाये.
ना ही औरते तन ढाक पाती हैं, बच्चे कुपोषण के शिकार हैं, ना ही पानी जैंसी मूलभूत चीजे ही इन्हें मिल पाती हैं, मैंने बचपन से आजतक इन्हें दरिद्रता में ही देखा हैं,
अवधेश कुमार राय