Angad tiwari
गर्मी थी या ठंडी थी,
तू खुशियों की मंडी थी।
चौड़ी थी या सॅंकरी थी,
बड़ी दुलारी बखरी थी।
घर में आंगन होता था,
सुख का सावन होता था।
शिशू घुटुरवन चलते थे,
मिट्टी में ही पलते थे।
दिल जैसे घर होते थे,
जोड़े छुपकर सोते थे।
दीवारें थीं माटी की,
परंपरा-परिपाटी की।
दीवाली मुस्काती थी,
होली नाच दिखाती थी।
जब भी कभी सॅंवरती थी,
इंद्रपुरी तक मरती थी।
छत लकड़ी की होती थी,
मगर बड़ी सी होती थी।
नरिया-खपड़ा-कंगूरे,
दरवानी करते पूरे।
विरह व्यथा हिय होती थी,
ओरी छुप-छुप रोती थी।
इसके गजब हौंसले थे,
खग के कई घोंसले थे।
गौरैया की चूं -चूं -चूं,
सुबह-सुबह दिल जाती छू।
गर्मी में शीतल एहसास,
ठंडी में गर्मी का वास।
वर्षा ऋतु जब आती थी,
तो मस्ती भर जाती थी।
देहरी बोला करतीं थीं,
हिय पट खोला करतीं थीं।
तुलसी मेरे आंगन की,
घर-घर थी मनभावन की।
जीवन सदा संवारे थी,
घर में नहीं दिवारें थी।
डेबरी में पढ़ लेते थे,
हम जीवन गढ़ लेते थे।
आधुनिकता में झूल गए,
हम बखरी को भूल गए। रचनाकार. Angad tiwari