महफ़िल में गीत नहीं गाता
न शायर हूँ, न ही गायक,
न ही संगीत की मुझे परख।
न हूँ कोई कवि लोक प्रिय,
साहित्य सार की नहीं समझ।
कुछ बिखरे अक्षर मामूली,
बस यूँ ही क्रम में सजाता हूँ।
संकोच रहा इस कारण से,
महफ़िल में गीत नहीं गाता हूँ।
निज खातिर रचता, खुद पढ़ता,
लिखकर खुद को ही सुनाता हूँ,
आमोद प्रमोद है ये अपना,
इस लिए नहीं इतराता हूँ,
महफ़िल में गीत नहीं गाता हूँ।
लेखन में कुछ ऐसा है पाया,
मनचाही लय में गुण गाया।
उनका स्वरूप बिन सुर के ही
जब जी चाहे दोहराता हूँ।
महफ़िल में गीत नहीं गाता हूँ।
धुंधला दर्पण हूँ क्या करता,
कैसे सौदर्य वर्णन कहता।
शुभगंधहीन एक पुष्प सरल,
प्रियसी को नहीं सुहाता हूँ।
महफ़िल में गीत नहीं गाता हूँ।
ढीले तारों की वीना में ,
झंकार कहाँ सुन पाते हैं।
अवरुद्ध गले से कब कोई,
मनभावन गीत सुनाते है।
ऐसा ही रहा सफर अब तक,
कुछ कहने में सकुचाता हूँ।
महफ़िल में गीत नहीं गाता हूँ।
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सतीश सृजन