💐💐प्रेम की राह पर-14💐💐
32-रात्रि को टिमटिमाते हुए तारे ऐसे चमकते हैं जैसे उन्होंने चमक तुमसे उधार ले ली हो।उन्हें मैंने धोखे से देखा,छिपकर, क्यों पता है वह निश्चित ही मुझसे कहते कि ए अछूते।तुम उस प्रेम के वाहक नहीं हो जिसे तुम सरल व्यवहार के माध्यम से प्राप्त कर लेते।नग्न विचारों के माध्यम से तुच्छ दृष्टिकोण ही जन्म लेता है।यहाँ विचारों की नग्नता जब पूर्ण हो तो निश्चित ही भावनात्मक सम्बन्ध कभी न जुड़ेगा।विचारों की नग्नता अर्थात संवाद और आचरण में हीनता का बलवती होना और संवेदना की पूर्णता न होना।यदि विचार सहवस्त्र हों,त्याग,शुद्धचरित्र,सत्य, करुणा,कर्मों में मानवता, हृदय में उदारता तो आपको परखने के लिए,किसी को भी,किसी विशेष,प्रतिबिम्बक की आवश्यकता नहीं है।निरन्तर यदि आप सत्य का आचरण करते हैं,बोलना, सुनना और देखना भी तो निश्चित सत्य का एक अद्भुत पर्दा निर्मित हो जाएगा।फिर यह जुड़ जाएगा आपके अन्तःकरण से।तो आपसे हर एक वस्तु सत्य ही जुड़ेगी।स्वतः असत्य के अलग होने की प्रक्रिया चल पड़ेगी।परन्तु इसकी उपयोगिता को किस आधार पर उपादेय किया जाए।यह हमारी सजगता पर निर्भर करता है।यह इतना आसान भी नहीं है।सुतरां सत्य को परिभाषित अपने जीवन में उसके साथ जीकर ही किया जा सकता है।तो हे मन्दाकिनी!मैंने तुम्हारे प्रेम को सत्य के रूप में ही जिया था।मैंने तुम्हारे अन्दर कोई पिशाच न देखा था।तुम औरत ही तो थे।तुमने उसे यह कहने में,अपने तरीके से,फ़िजूल में अतिरेक सिद्धान्तहीन संवाद को ऐसे जन्म दिया कि जहाँ प्रेमशस्य में तुम्हारे मधुर संवाद के खाद की आवश्यकता थी तो तुमने अपनी कर्कशता का ज़हर दे डाला।हाय!वह प्रेम का शिशु तरु कितना उपकृत समझता तुम्हें कि यह निश्चित ही कोई अनुभवी बाँगबां है जो सत्य के परामर्श का खाद लगाकर,मुझे फलित होने और मेरे कष्ट के समय में भी मेरा ख़्याल रखेगा।हे निर्मोही!तुमने उस किसी भी ईश्वरीय गुण का परिचय न दिया जिससे कम से कम यह पता लग जाता कि नहीं नहीं यह कोई प्रेम पथिक ही है जो निश्चित ही इस शुध्द प्रेमपथ का अनुगमन करेगा।हाय!मित्र तुमने इस मार्ग को इतना कर्षित कर दिया है कि इसकी तरफ देखने की इच्छा भी न करे।मैंने कोई तुम्हारा उपहास तो न उड़ाया था।परं तुमने मेरा उपहास उड़ाया और समझा भी, इसे कहाँ कहाँ कह दिया है,यह मानकर कि मुझे कोई जानता नहीं है।यह कैसा मानक है तुम्हारे उस मनोहर संवाद को इधर उधर कहने का।क्या कोई मेरे मृत हृदय को इस प्रकार संजीवनी दे सकता है।क्या कोई मेरे हृदय पर संवेदक हाथ फेरेगा।क्या कोई मेरा हाथ पकड़कर मुझे उन रास्तों पर ले चलेगा जहाँ प्रेम में पूर्णता मिल सके।कोई न मिलेगा मुझे।यह दुनिया इतनी ठग है कि शुद्ध प्रेम का क्रय- विक्रय भी अपने अनुसार करना चाहती है।हे मधुर!तुम्हें मैंने ठग न समझा था।तुमने मेरे प्रेम का क्या मूल्य निकाला कहाँ कहाँ बेच दिए मेरे वे हँसी से भरे संवाद।कितना संताप देते हैं मुझे।मुझे बड़ा गौरव था कि यह प्रथम प्रेम उद्दात्त गुणों से युक्त होगा।हे दुष्ट! तुमने मुझे एक कामुक पुरुष के रूप में ही देखा और सिद्ध कर दिया स्वघोषित लोफ़र।क्या ऊपरी सुन्दरता ही प्रेम का वाचक होती है तो पनस फल को कोई भी मनुष्य न खाएगा।इतने कंटक ऊपर हैं तो अन्दर कितने होंगे।मैंने तुम्हारी मूर्ख सुन्दरता के परिभाषक कोई मिथ्या वचन भी न कहे थे।चलो मैं यह कह देता कि तुम्हारे अधरों पर कपि की लालिमा है और तुम्हारे गेसू पर वैशाखनंदन की कालिमा।तो तुम ज्यादा ख़ुश होते क्या।झुर्रियां तो तुम्हारे शरीर पर भी आएंगी।सिकुड़ जाएगी खाल बुढ़ापे में।तब याद करना उन सभी मिथकों को जो तुम्हें अन्य बाजारू इश्कों में दिखाई दिये थे, परं इस मनुष्य का प्रेम तुमसे विशुद्ध होकर ही जुड़ा।तुम जिस मन्च पर बैठे हो तुम्हारी मूर्खता तुम्हें धिक्कारेगी।वह कहेगी तुमने मूर्खता का पैमाना ही समाप्त कर दिया है।इस प्रेम की गहराई को न जानकर।तुम वज्रमूर्ख हो।तुम्हारे अन्दर इतना साहस नहीं है जिससे तुम मुझ से बात भी कर सको।मूर्ख।
©अभिषेक: पाराशर: