💐💐प्रेम की राह पर-13💐💐
33-मैं पराधीन नहीं हूँ।मैं स्वतंत्र हूँ उस कोयल की कुहू-कुहू की मधुरध्वनि की तरह जो मनुष्य की श्रवणेन्द्रिय को अनायास ही सुख के व्यवहार से युक्त बनाती है।तो मेरी स्वतंत्रता का समागम तुम्हें खुश करेगा या नहीं।यह मुझे ज्ञात नहीं है।परन्तु,हाँ, तुम अपनी व्यग्रता में मेरे ऊपर थूक सकती हो,तुम इसमें सिद्धहस्त हो।उस पिक को किसी भी विशेष चिन्ह की जरूरत नहीं है।उसकी वह कुहू-कुहू की ध्वनि ही उसे कृष्ण वर्ण की मूल प्रकृति से भिन्न बनाती है और तुम्हारी निष्ठुरता तुम्हें अन्य जनों से भिन्न बनाती है।कोयल कितना भी श्रम कर ले कभी भी वह अपने कृष्ण वर्ण को नहीं परिवर्तित कर सकती है।तुम्हारी निष्ठुरता कभी सरलता में नहीं बदल सकती है।यह आरोपण नहीं हैं।यह उन बिंदुओं के सार-वक्तव्य है जो निष्कपट भावना से तुम्हारे प्रति कहा गया है।इनमें किसी भी तरह का कोई व्यावहारिक रंजक न मिलाया गया है।यह जो निष्ठुरता होती है न।इतनी विरंजक होती है कि तुम कितने भी प्रकृति सौन्दर्य पूजक हो,तुम्हारे शब्दों के पंखों को विरंजित कर ही देगी,उसके लिये सामान्य द्वेष प्रकट कर और तुम न प्रदर्शित कर सकोगे अपनी सौन्दर्य वर्णन विधि।प्रेम के प्रवाह को सौन्दर्य आकर्षण देता है और निष्ठुरता ग्लानि।तो हे पूर्णिमा!तुम सोच लो कि निष्ठुरता को लिए हुए हो तो ग्लानि तो अवश्य प्रकट होगी तुम्हारे अन्दर।परन्तु तुम्हारी निष्ठुरता भी अनुभव हीन है।तुम ग्लानि को अनुभव कर भी लो तो तुम क्या आशय और शिक्षा ग्रहण करोगी।चलो प्रदर्शन कि चहल-पहल का आन्दोलन अपने चरित्र सिद्धि हेतु,तुमने मुझपर थूककर और जूता मारकर पूरा किया।फिर भी मेरे भेजे गये सन्देशों से यदि मेरा चरित्र हीन होना सिद्ध कर सको तो तुम जरूर बताना।फिर उस बात का क्या जो गलत भावना से न कहकर ,उस सम्मुख मनुष्य से अन्दर की बात लेने के लिए की जाती है।मेरे अन्दर बहता हुआ प्रेम का अजस्त्र प्रवाह,एक पल के लिए शान्त तो हुआ, क्यों जानते हो, वह मेरे लिए सहग्लानि अपराध बोधक था, परन्तु उसके द्वारा एक स्त्री ने स्वयं ही एक कमजोर होना सिद्ध कर दिया और सिद्ध कर दिया कि अभी स्त्री ,जो शक्ति का द्योतक है अभी भी वह अपनी शक्ति को स्वयं संचालित न कर सकेगी और न समझ सकेगी उस प्रेमपात को जो इतना सुखावह था कि उसमें एक लेशमात्र भी सिवाय विशुद्धता के कोई शक्ति नहीं थी।तुम लगी रहीं अपने प्रमाद में, पर इसने तुम्हें किसी भी स्थिति पर न पहुँचाया।और तुम्हारा शक्तिपात न समझ सका उस प्रेमपात को,जो दोनों मिलकर प्रेम शक्ति बन जाता।तुमने अपने ज्ञान के मद में अन्धे होकर प्रेम को भी अन्धा कह दिया।तुम पोषक बनकर भी प्रेम को कुपोषित करतीं रहीं।ख़ैर,तुम अब उन अतिप्रेम की शाश्वत लहरियों में बह रही हो और यह भी हो सकता है कि यह लहरियाँ तुम्हें शीतलता न देकर अब दाहकता देंवे। अभी भी तुम वयस्क पुरूष और स्त्री नासमझ परामर्शकर्ताओं में फँसी हो।जो तुम्हें तुम्हारे स्वरूप से वंचित कर तुम्हें गर्दिश में डाल देंगे।फिर निश्चित ही तुम्हें तुम्हारा यह अभी हाल का अतीत धिक्कारेगा, तुम्हारी मूर्खता के लिए।कहेगा कि व्यवधान ही दे सकीं इस शुद्ध और सरस भावना से निमज्जित प्रेम को। अब तुम मूर्ख भी नहीं हो।तुम सनकी पगलिया हो।जो विक्षिप्त होने के लिए आगे बढ़ रही हो। यदि मैं स्वयं ठीक हूँ तो इन सभी का आनन्द लेना अपनी मूर्खता से और घूमना विक्षिप्त होकर।सनकी।