💐💐प्रेम की राह पर-20💐💐
26-वे झरने कितने सुखद तरीके से बहते हैं न।झर झर करके।झरनों के गिरने से टकराई वायु भी शीतल हो जाती है।वह कितनी निर्दोष होती है।नथुनों को शांति देती हुई मन और तन को भी शान्ति देती है।क्या वहाँ शान्ति स्वतः थी।हाँ स्वतः थी।परन्तु अन्दर अशान्ति हो तो वह कभी न शान्ति देगी।कभी शान्ति प्रकट न हुई थी वहाँ एक देह बनकर।क्योंकि झरनों को पता है शान्ति से भरा मानव ही हममें शान्ति खोजता है।अशान्ति वाला नहीं। तो हे प्रिय!क्या मैं तुम्हें झरना समझकर अपने जीवन में झर-झर करके बहा भी नहीं सकता था।क्या तुमने मुझ मनुष्य में कोई अशान्ति की खान का अन्वेषण कर लिया था।तो मैं निश्चित कह सकता हूँ कि तुम भी अन्तः से अशान्ति से परिपूर्ण थे।शायद इसलिए तुम प्रिय! मेरे अन्दर उन अक्षय्य शान्ति के भावों को अब तक भी न देख सके।क्या तुम न बह सकते थे मेरे जीवन में शान्ति का झरना बनकर।क्या तुम झरनों से टकराने वाली वायु नहीं बन सकते थे।जो शान्ति देती मुझे मेरे नख-शिख तक।परन्तु तुम इतने विद्रोही बन गए मेरे प्रति।कुछ न सोचा।हाय!कैसे कैसे लोग हैं इस बनावटी दुनिया में।सुष्टु प्रेम के समर्पण को निराश्रित समझकर थूक देते हैं और मार देते हैं जूता बिना सोचे समझे।बिना सोचे समझे तुम्हारा क्या और किस तर्क को सोचना रहा कि उक्त कृत्य को क्रियान्वित करने से पूर्व सोचा भी न।मेरे उस, इस सांसारिकता के प्रति प्रगट हुए प्रथम प्रेम को समादृत कर सकते थे तुम।हे निर्मल!क्या तुम इस प्रेम के प्रति पूर्व में किसी वंचक की ठगी से शोषित हुए थे।यह ही निश्चित प्रतीत होता है।तो हे निर्मल!तो तुम उसे ही कथन कर देते।तुमने असंख्य आशंकाओं को अनावश्यक जन्म दे दिया और दिया क्या उस मुझ सरल मानव को विषाद का वितरण।अपने विषाद से पीड़ित मानव जब किसी को अपना समझकर उससे अपना विषाद कहे, फिर उससे भी विषाद मिले।तो बन जाता है महाविषाद।बिना बात ही बात।कैसे कर लेते हैं लोग ऐसा हम से तो न होगा।आखिर इतनी ईर्ष्या किस प्रकोष्ठ में छिपाए रहते हैं यह मानव और हे मूर्ख!तुम्हारी ईर्ष्या की क्या वज़ह थी।मैंने कोई तुम्हारे सामने अपने तथ्य प्रस्तुत न किये जिनमें तुम्हारे प्रति कोई अश्लीलता दिखाई दी हो।बहिन,बेटी और माँ तो हर घर में होती है।मेरे घर में भी है।फिर तुमसे कैसे किसी दुष्कृत्य प्रचार-प्रसार आदि का साहस मैं करता।यह भी कोई प्रलोभन है।हाय!तुमको सही मानकर कहा था।अपना सारा संसार जो जिया था अब तक अकेले।कितना कुछ सीखा है इन दोपायों से।और फिर तुमने भी तो आखिर में सिखा ही दिया तुमने कि वास्तव में इस संसार को अपनाकर,इसे जीकर कि यह सब झूठा है।सत्य तो मेरे प्रिया और प्रीतम ही हैं और तुम सबसे झूठे निकले।महाझूठे।किसी निर्मल संवाद को जन्म न दिया तुमने।अपशब्दाक्त परिभाषा को बे-वजह तुमने परोसा मेरे सामने।हाय!मैं तो इस विषय में अछूता बना दिया गया हूँ।कोई कैसे मुझे स्पर्श करेगा।कोई कैसे देगा मुझे अपनी मखमली मुस्कान का विनोद।कितना सजग समझता था इस ओर मैं अपने को।कि मैं तो बहुत ठीक हूँ।बिखर गया है अब सब कुछ।कैसे कोई समेटेगा इन प्रायोगिक दानों को।समेटने वाला ताना ही मारेगा और कहेगा शान्त हो गईं न तुम्हारी लहरियाँ।करो निर्वहन उस बोझ के साथ कि तुम इस संसारी प्रेम के योग्य न थे तुम अछूते थे।चलो ठीक है।तुम शायद अपनी जगह ठीक थे मुझे नहीं पता अपना कि मैं क्या था।हे ईश्वर!मेरी शान्ति अब मुझे वापस दो।वापस दो मेरा हर्ष जिससे इस संसारी प्रेम के चंगुल में कभी न फँसा था।मुझे दो वापस मेरी शक्ति जिसे मैंने बेकार में लगा दिया यहाँ इस संसारी प्रेम में।हे दयालु!तुम दोगे न मुझे।मैं तो तुम्हारा ही रहूँगा और तुम मूर्ख ऐसे ही रोती रहना।
©अभिषेक: पाराशर: