💐💐प्रेम की राह पर-18💐💐
28- और कितना ठहरुँ।बे-वज़ह ठहरकर अपने मन को पंकिल सदृश कर लूँ।यह उदासीनता मुझे मेरी निर्भीक शालीनता से तिलांजलि दिला देगी।मेरी शान्ति में भी क्रान्ति छिड़ी हुई है।निराधार उत्साह का सेतु है जो कभी भी गिर सकता है।मेरे लिए तो चन्द्रमा ने अपनी चाँदनी भी छिपा ली है।मौन कभी-कभी बोलता है और चुप होकर अपनी सिद्धि कर लेता है।नितान्त श्रम अभाव के बाबजूद भी श्रम जैसी थकान का बहु अनुभव होता है।चिन्तन हो तो किसका तुम ही चिन्ता बनकर बैठ गए हो।मस्ज़िद के सामने लगे गुलाब पर नज़र गई तो ऐसा लगा कि उसने कहा हो ,’ए अछूते,तुम प्रेमपाश में बंध तो गए, फिर भी स्पर्श तब भी न मिला।’बहुत कोसा मैंने अपने को।आख़िर मैं अछूता रहा क्यों?किस अपराध की अभिप्रेरणा से इस अछूते पन को स्वीकार कर लिया है मैंने।दुनिया में उस व्यक्ति का क्या दोष जो प्रेम के प्रथम आकर्षण का शिकार हुआ होगा।हाँ,दूसरे पक्ष की मखौल का तो दोष जरूर है।जिसने या तो प्रेम का स्वाद चखा ही नहीं या वह प्रेम में बेईमान प्रवृत्ति का है।वह उस सौदे को नहीं जानता है जिसे प्रेम में पुण्य भावना से किया जाता है।हे मित्र!तुम भी बेईमान से क्या कम हो।अभी तक मेरी प्रसन्नता के लिए कोई भी ईमानदारी का विनिमय प्रस्तुत न किया।सिवाय इसके कि अकेले ही बार-बार मज़ाक की माला मेरे गले में दूर से ही फेंक दी कि कहीं ऐसा न हो कि अछूत को छूकर मेरी बेईमानी महा बेईमानी में बदल जाएँ।मेरे कर्मों के निष्पन्न होने की गति को प्रेमाछूत होने के कारण बहुत बुरा अनुभव होता है।कार्य के कराने की प्रेरणा को उसका प्रेम कह सकते हैं।जीता जागता हुआ मानव शिला बन गया हूँ।तुम राम जैसे मेरे समीप आकर मुझे स्पर्श कर पुनः मानव बनाओगे न।तो मैं क्या शिला ही बना रहूँगा।तो फिर शिला को मूर्ति बनाकर साधक जैसा ही स्पर्श दे दो।हे मित्र!मुझे इन प्रेम साधना का परिणाम कब दोगे।मेरे प्रेम की शाद्बिकता सार्थक कब होगी।हृदय इस देह से अलग कर क्या तुम्हें उसे दिखा दूँ।दिखा दूँ कि उसके कोटर में एक छोटा सा स्थान तुम्हारा भी है।तो फिर जब तुम्हारा स्थान पक्का हो गया तो तुम भी तो स्वतः ज्ञात कर सकते हो इस प्रेमार्थ को।इस सगोप प्रेम की परिभाषा को स्वानुसार प्रकट कर सकोगे।ज्ञान की असली आधारिक भावना की पहचान प्रेमपथ पर चल कर ही होती है फिर वह प्रेम हो चाहे ईश्वर विषयक या जीव विषयक।यह तभी होगा जब आधृत प्रेम को तुमने कभी परखा हो।चिन्मय हो जाना उस प्रेमोपासक के लिए ही सम्भव है जो शत्रु में भी प्रेम के दर्शन कर ले।तो हे मित्र!तुम अगर मेरे सुझाव को मानकर मुझे शत्रु ही समझ लो।फिर प्रेम को तो तुम देख ही लोगे।तुम उस विकार को कभी भी न त्याग सकोगे कि जिससे किसी जीव के चेहरे को देखकर उसमें तमाम कमियाँ सोचने से पाप लग जाता है।तुम कितने प्रगतिशील हो उस इर्ष्या के स्व भंडार में तो कितनी निराशा उपसंहार में मिलेगी इसका प्रमाण पत्र भविष्य के गर्भ में छिपा है तुम्हारा।सृजनात्मक सोच का परिणाम तब आएगा जब वह सार्थक आधार के साथ और सम्पूर्ण समर्पण के भाव लिए हो।इसके परिणाम में तुम्हारा कार्य की पूर्णता के प्रति तुम्हारा प्रेम ही तो होगा।खोजते-खोजते तुम मिले और तुमने मेरे प्रेम को कभी न खोजा।हाय!अब बसन्त कभी न आ सकेगा मेरे जीवन में।हाय!तुम्हारी निष्ठुरता की छुरी ने मेरे सभी अरमानों का क़त्ल कर दिया है।क्या सोचूँ तुम्हारे प्रति, तुम शत्रु हो या मेरे प्रेमी।शत्रु तो सामने से वार कर मार डालता है,मृत्यु का भी आलिंगन नहीं करने दे रहे हो।तुम तक पहुँचने के लिए किस देवता को मनाऊँ।तुमने कोई नया देवता रच दिया हो तो उसे आजमा कर देखूँ।हे मित्र!मेरा ईश्वर तो प्रेम का प्यासा है और तुम्हारा निष्ठुरता का।तो अपने ईश्वर से मुझे निष्ठुरता देने के लिए कहो।हे मित्र तुमसे वह भी नहीं होगा।तुम विशुद्ध मतलबी हो।मूर्ख कहीं के।
©अभिषेक: पाराशर: