💐💐प्रेम की राह पर-17💐💐
29- हे शिकारी!कर दिया न तुमने शिकार मेरा,तुम्हें शान्ति का दान मिल गया होगा न।तुम्हें कोई तो चमत्कार दिखाई दिया होगा अपने घाव देने के तरीके से।कितने घाव दिए हैं तुमने मुझ बेचारे को।क्या उसूल रहे तुम्हारे।हाय!यह घाव कैसे ठीक होंगे।यदि ठीक न हुए तो क्या तुम सही कर सकोगे।अब इससे अच्छा तो तुम मुझे मार देते।कम से कम यह भार तो न रहता इस पवित्र हृदय पर।यह घाव कैसे ठीक होंगे कोई तो उपाय होगा।कैसे भी ठीक करने की कोशिश करो।तुम रहस्य बनकर मुझे क्यों पीड़ित कर रहे हो।हे मोहन!मुझे पता है कि तुम सब कुछ जानकर भी अनजान बने हुए हो।तुम्हारे सूक्ष्मता से विस्तृत होते विचार कितनी सार्थकता से स्वरूप में स्थित होकर जो रोमान्च का मंचन करते हैं कहीं मेरी भी नाम लिख लेना उनमें प्रिय!क्या तुम्हारी सत्यता शत्रुता में परिवर्तित होकर मुझे नकार देगी।फिर उस अवलोकन का क्या जो तुम्हारे निगाहों की पगडण्डी पर बार-बार निश्चित ही मुझे खोजती रहीं होंगी।मैं जानता हूँ कि तुम इतने निष्ठुर तो न होगे।फिर यह मान लिया जाए कि तुमने मज़ाक ही मज़ाक में अपनी निष्ठुरता का मिथ्या परिचय दिया।क्या यह केवल दिलाशा दिए जाने जैसा था।मेरी पीर के उत्स को तुमने कभी स्पर्श भी न किया।मित्र!करोगे न इसे छूकर इसका अन्त।मैं कितना उज्ज्वल होना चाहूँगा इस विषय में तुम मुझे जीवनदान दो।मुझे अपना समझकर हँसी में ही यह कह दो कि तुम भी इस प्रेमसुख के अधिकारी हो।तुम अछूते न हो,हे मित्र!तुम न कह सकोगे।मुझे पता है।तुम केवल धिक्कार ही दोगे।कितनी फिसलन है न तुम्हारी इस धिक्कार में।प्रेमपथ इतना चिकना हो गया है कि मैं तो कभी न चल सकूँगा।हाँ चल सकूँगा तो एक मात्र तुम्हारा हाथ ही इसका आधार होगा जो मुझे नरमी से पकड़कर ही इसे पार करा सकेगा।परन्तु यदि तुम क्रोधावेश से जरा भी मुझे विलग करोगे तो यह सब कुछ ऐसे नष्ट जो जाएगा जैसे अहंकारी का अहंकार नष्ट हो जाता है।कायर का यश नष्ट हो जाता है।परस्त्री के स्पर्शमात्र से नष्ट हो जाता है ब्रह्मचर्य।तो अब भी तुम मुझे विलग करोगे।तुमने कभी साहस देने का प्रयास न किया।कभी अपनी निर्दिष्ट भाव-भंगिमा को अपने अन्दर मेरी सोच के अनुसार व्यवस्थित करना।यह मानकर की चलो में अज्ञात हूँ।वैसे किसी मानुष के कहे हुए शब्द उसके व्यक्तित्व के परिचायक होते हैं, तो अधिक व्यंग्यार्थ तो न लपेटूँगा।पर यह कहे हुए वचनों में मेरी छवि मानकर तुम पुनः थूक सकती हो।थूक दो,कोई बात नहीं।स्त्रियों का प्रेमपाश में बँधे भले मनुष्यों के ऊपर थूकना उनके चरित्र को साफ सुथरा बनाये रखता है।चलो छोड़ो।सुतराँ अधिक चतुराई मनुष्य को कभी-कभी मूर्ख बना देती है।फिर वह मूर्ख कितने स्तर का है,यह स्वतः सिद्ध हो जाता है।तो हे चतुरशिरोमणि!आर्थिक विपन्नताएँ मनुष्य के जीवन में दुःख के नालें बहा देती है।इन नालों में अशुद्ध जल रूपी अपने ही लोगों की निन्दावचनों को वह संकट में मानव कर्ण खिड़की में डालता रहता है।फिर लोग बातों की चित और पट करके उनके वज़न को तौलते रहते हैं।दुगने मुनाफे के प्रचार प्रसार का कार्य वे लोग बड़ी ही सुगमता से सम्पन्न करते हैं।चाहे किसी से कुछ कहकर।कितना अंतर्द्वन्द है न। अकेले सरल हृदय मानव के लिए।सब कुछ जानकर वह कुछ नहीं कर सकता है और तुम तो हे प्रिय!सब कुछ जान गए हो मेरा, फिर तुमने कभी प्रसन्नता का विनोद न किया और अधिक निष्ठुर न बनो।कितना सृजन करोगे निष्ठुरता का।कभी बांटों प्रेम खुले दिल से,यह दुनिया खुल जाएगी, तुम जैसा चाह रहे हो वैसे ही,प्रेम ही तो है ईश्वर रूप सबके लिए।यह ऐसे कभी नहीं जागता है अंतःकरण शुद्ध करना होता है नहीं तो यह स्वार्थ और वासना के रूप में परिभाषित किया जाता है। चलो हटो।मूर्ख।तुमसे कुछ न हुआ।
©अभिषेक: पाराशर: