💐💐प्रेम की राह पर-16💐💐
30- जानते हो तुम्हारी शब्दों की शीतल अग्नि मेरे शरीर को दाह दे रही है।तुम्हारी ओर से आने वाली स्मृति इसके ईंधन के कर्तव्य को बख़ूबी निभा रही है।तुम्हारा निश्चिन्त होकर मुझे चिन्तित बना देना क्या बानगी है तुम्हारे गुणों की।तुमने मेरे जीवन के आनंद को नष्ट कर दिया है।हृदय पर लगी चोट से मनुष्य को एकाकीपन की दासता स्वीकार करनी पड़ती है।वह मनुष्य प्रेम में मिले विश्वासघात की जंजीरों से बंधा रहता है।जीवनभर वह बेचारा उन जंजीरों से निकलने का प्रयत्न करता है।पर चक्रव्यूह जैसी वे जंजीरे उस न छोड़ती हैं।हे मित्र!वह अभागा विचारों की परतंत्रता के साथ ही मृत्यु का आलिंगन करता है।हाय!उसकी पीड़ा को कोई न समझ पाया।परिहास उड़ाया उसके पवित्र प्रेम का यह कहकर कि उसका प्रेम,प्रेम न था वासना थी।परन्तु एकतरफा इन सभी को उसके साथ जोड़ना कितना ग़लत है।यह प्रथम प्रेम को और धुँधला बना देता है।अपनी स्वीकृति में उसने इस दुर्भावना को प्रथम दृष्टया देखा ही नहीं।इस नज़र को जिसने हे मित्र!तुम्हें देखा तो देखा।वह नज़र उठी क्यों।नज़ारे सुन्दर होंगे, रमणीय होंगे, परम पावन होंगे तो भला नज़र में भी दोष न होगा।तो वह तो उठेगी और शान्त होकर समा लेगी तुम्हें अपने नजरों में जैसे समा जाती है बूँद समुन्दर में।उस बेचारे ने तो कभी अपनी दृष्टि को तुम्हारे ऊपर गढ़ाया ही नहीं।फिर भी तुमने उसके ऊपर थूक दिया और वह भी इतनी ईर्ष्या से कि उसे अछूता बना दिया।हे ईश्वर!इस अछूतेपन को कब नष्ट करोगे मेरे।क्या मैं इस अपमान के साथ ही मृत्यु को चुनूँगा।इस संसारी प्रेम ने मुझे लफंगा ही सिद्ध कर दिया है।तुम्हारी नजरों में।इससे पूर्व आत्मग्लानि के स्वरूप को देखा भी नहीं था और न उसे परखा था।फिर इसका योग इतना कष्टकारी होगा कि वह अभी तक दूर न हुआ।नेत्रों से गिरने वाले अश्रु अभी भी तुम्हारे प्रतिबिम्ब से युक्त हैं।तो फिर इससे सिद्ध हुआ कि तुम्हारी स्मृति को अभी यह हृदय त्याग न सका है।क्या आधार ले बैठा है गिरवी कहीं और है और पीड़ा कहीं और से ग्रहण कर रहा है।हे मित्र!कितना शोषित हूँ!यह बता न सकूँगा और वैसे भी तुमने कभी पूछा भी नहीं।हे मित्र!एक बार पूछ तो लो।तुम्हारे शब्दों को सुनने के लिए कितना प्रतीक्षित हूँ।इस प्रकार की किसी भी विद्या में दीक्षित न था जिससे प्रेम की पृष्ठभूमि तैयार की जाती।मैंने समर्पण सीखा है उस परमेश्वर के प्रति।उसकी हल्की सी आभा को यहाँ प्रयोग करके देखा था।पर उस प्रेम और इस प्रेम में इतना ही अन्तर है।वहाँ मेरे प्रेम की गणना हुई और तुमने मेरे प्रेम को रौंद दिया और किया अट्टहास थूककर।दिखा दी अपने शिक्षा की औसत औकात और ज्ञान की उस सन्धि को ही नष्ट कर दिया जो दो प्रेमों से मिलकर परम प्रेम बन जाती।धज्जियाँ उड़ा दी गई।सम्मान क्या ही हो।सम्मान के विषय में सोचा ही नहीं गया।वैसे भी जब समझ लिया टपोरी तो सम्मान कैसा।हे मित्र!चलो तुम विजयी हुए और यदि तुम कभी ग्लानि महसूस करो तो अपनी पुस्तक तो भेज देना।पहले भी कह चुका हूँ।सुन्दर तो मेरा ईश्वर ही है और तो सब सुन्दरता और सब चमत्कार मल ही हैं।फिर सोच लो तुम।हमसफ़र बनने के लिए एक श्रेष्ठ आत्मा का होना जरूरी है हे मित्र!फिर उस प्रेम को भी समझना कि यह कितना गहरा है।पर तुम्हारा अनुभव जबाब दे गया और उजाड़ डाली वह बस्ती जो बसी थी उस इश्क़ का स्पर्श पाकर।एक झटके में।मैं उलाहने भी न दे सका।कितना अभागा हूँ पता नहीं।कौन मापेगा मेरे इस अभागेपन को।यह अभिशाप ही है कि एक विषय में मैं सदैव अछूता ही बना रहूँगा।हे मित्र!क्या अभी भी तुम मेरे बिषय में सोचते हो।सोचते तो होगे।पर क्या यह नहीं पता।मैं तो बहुत दूर से ही सोच लेता हूँ।तुम्हारे पास ईर्ष्या का बारूद जो पड़ा है।कहीं विस्फ़ोट हो गया तो।यह अधमरा मनुष्य पूरा मर जाएगा और तुम्हें मिल जाएगी शान्ति।हे छुईमुई!तुम वाक़ई छुईमुई तो नहीं हो।शायद मेरी स्मृति का अंश पाकर सिकुड़ गई हो।अब प्रसन्न होकर इस शीतल अग्नि के दाह को शान्त कर दो।मान्यवर।इतने भी मूर्ख न बनो।
©अभिषेक: पाराशर: