💐प्रेम की राह पर-37💐
सिलसिलेबार मेरे प्रश्नों के प्रसंग में चार-पाँच पंक्तियों में तुमसे ऐसे उत्तरों की पूर्वनिर्धारित आशा न थी।फिर देख लो उस प्रेमारण्य में एक जंगली पशु की भाँति तुमने एक सविचार पुरूष के सात्विक पुरुषार्थ को अपने शाब्दिक विषभुजे तीरों से नष्ट कर डाला और अपशब्द रूपी विष भी चटाया।अग्निबाण की तरह तुम्हारे शब्दों ने बे-शर्म होना सिद्ध किया और बता दिया तुम निश्चित ही अनुभवहीन हो और शिशु पक्षी जैसा उड़ना सीख रहे हो।तुम्हारी दुत्कार में भी अहंकार की भावना लिपटी हुई है। यह निश्चित हो गया है। तुम प्रायश्चित भी करना चाहते हो।परं उस वैचारिक स्थान की रिक्तता है।वह भी तुम्हे अब कहीं नहीं मिलेगा।समान आयु वर्ग के तो हम निश्चित ही होंगे यह सुविचार मेरा भी था।परं तुमसे जो व्यवहार मिला पागल सियारनी जैसा बहुत क्षुब्द करने वाला है।मेरे शुद्ध भावों को सम्मान नहीं दिया तुमने तुम निश्चित ही इसका परिणाम इसी रुप में मिलेगा।शब्द विचारों का हक मार लेते हैं।पर तुम्हारा सौन्दर्य इतना विलासी भी नहीं था कि मैं उस पर रपट गया।तुम्हारा बौद्धिक कौशल देखा हाँ ठीक लगा।इसके बाबजूद भी तुम्हारी सयानापन बहुत ही निर्लज्जता से भरा है।इसे स्वीकार करना स्वयं को मूर्ख बना देना है।क्योंकि की संगति पाकर तुम्हारी मूर्खता का असर तो आएगा ही।
©अभिषेक: पाराशरः